December 03, 2014

आज मैं अपने लिखे एक लघु-उपन्यास का अंश आप  सबके साथ साझा कर रही हूँ। इसे मैंने आठ साल पहले लिखा था। इग्नू से रचनात्मक -लेखन के पाठ्यक्रम में ये मेरा प्रोजेक्ट था। मैं किसी को भी टैग नहीं कर रही हूँ ,परन्तु आप सभी की प्रतिक्रिया की मुझे उत्सुकता से प्रतीक्षा रहेगी। इसे दो और कहानियों के साथ प्रकाशित करवाने की ईच्छा  रखती हूँ।

                                                         भग्नांश

"बधाई हो मुक्ता ……बेटी है ,तुम  तो बेटी ही चाहती थीं ना ?सच कितनी प्यारी है। "माँ ने बच्ची को नरम गुदगुदे  कम्बल में लपेट कर बच्ची को मुक्ता  के बगल में लिटा दिया और जब मुक्त ने पहली बार बच्ची को देखा ,तो उसे लगा साक्षात लक्ष्मी जी उसके घर आई हैं। कानों में स्वर गूंजने लगे .............
                                      "महादेवी महालक्ष्मी नमस्ते त्वं विष्णु प्रिये।
                                        

October 20, 2014

आज चिठ्ठी -पत्री  की बात………इस दीवाली अपनी आलमारी  ठीक करते समय पुरानी चिठ्ठियों का थैला हाथ लग  गया ,दोपहर से शाम हो गयी पुराने खतों को पढ़ते -पढ़ते। कितनी भूली यादें फिर से ताज़ा हो गयीं। सोचने बैठूँ  तो ख़त  की दुनिया से मेरा प्रथम परिचय मेरी दादी ने कराया। वो मुझसे चाचा और बुआ के लिए खत लिखवाती। वो बोलती जातीं और मैं लिखती, बड़ा मज़ा आता। मैं हर चौथे दिन उनके पीछे पड़ती चलो अम्मा खत लिखें। वो  कहतीं -अरे पहले जवाब तो आने दो। जवाब में खत आता तो वो भी हम ही पढ़ते। खत के अंत में अपने लिए प्यार भी मिलता। कभी-कभी मैं कहती -अरे अम्मा तुमने ये बात तो चाचा के खत में लिखवाई ही नहीं ,तब वो समझातीं -अरे नहीं बेटा  ये बात खत में लिखने वाली थोड़ी  है। इस तरह हमें ख़तो -किताबत का इल्म हुआ। स्कूल के दिनों में जब कभी स्कूल से अनुपस्थित होना पड़ता तो अपनी छोटी बहन का इंतज़ार करती ,वो मेरी सहेलियों की चिठ्ठी लेकर आती। उस दिन क्या पढाई हुई और क्या होमवर्क मिला -ये हमें उस खत से ही पता चलता तब फ़ोन तो था नहीं। पापा का ट्रान्सफर  होने पर दूसरे  शहर जाकर पुरानी सहेलियों को खत लिखे जाते ,लिखते समय आँखे भर आती और जवाब मिलता तब भी रोना छूट जाता। कितने ख़त  चचेरी ,ममेरी बहनों को भी लिखे। सबसे दिलचस्प होता था ख़त  के जवाब का इंतज़ार। डाकिये को घर की ओर  आता देख कर ही धड़कने बढ़ जाती ,हम भाई -बहनों में चिठ्ठी की छीनाझपटी भी खूब होती और कभी-कभी चिठ्ठी बिना पढ़े ही फट जाती ,तब हम उसे जोड़ कर पढ़ते। मुझे याद है ,जब मेरी शादी तय हुई -मैं और मेरे होने वाले पति एक ही शहर में थे ,पर फ़ोन की सुविधा नहीं थी और मिलने की आज्ञा नहीं थी। शादी से पहले के ६ महीने हम दोनों ने एक-दूसरे  को बहुत से ख़त  लिखे। आज भी जब उन्हें पढ़ती हूँ तो बहुत अच्छा लगता है। फिर शादी के बाद माँ -पापा से दूर होने पर उनके खतों का इंतज़ार रहता। कहने का तात्पर्य यह कि  ,चिठ्ठी -पत्री  का हमारे जीवन में बहुत अहम स्थान था। कितने दिनों तक कोई बात सोच कर ख़त  में लिखी जाती थी। आज की तरह थोड़ी कि , जो मन में आया तुरंत वाट्सएप्प  पर लिख मारा। संचार क्रान्ति ने हमारा जीवन ही बदल दिया है। मैं भी सोचूँ तो मैंने भी आखिरी बार कब -किसको ख़त  लिखा था ,याद नहीं। ये तो अच्छा है कि , अब हमें बाहर  रह रहे अपने बच्चों का और अपने वृद्ध माता-पिता का हाल जानने के लिए कोई इंतज़ार  नहीं करना पड़ता। अब सब बस एक फ़ोन -कॉल  की दूरी पर ही है। पर खतों की बात ही अलग थी ,एक ही ख़त  में पूरे घर के लोगों के लिए कुछ ना  कुछ अवश्य रहता था ,चाहे सादर प्रणाम और प्यार स्नेह ही क्यों ना  हो। 

October 09, 2014



"मधुर चाँदनी  से बन आये थे तुम जीवन में,
रस  प्रेम-सुधा बन छाए थे तन-मन में।
कितने  पूनम, फिर कितनी अमावस,
मिल कर भोगे ,जीवन के सब नवरस।
आये  वसन्त, फिर  गए जो पतझड़ ,
वो गूँज हँसी की, आँसू  की हर लड़।
बन गयी हैं थाती, जीवन की अब,
जो कहीं थीं बातें तुमने तब।
जीवन की साँध्य बेला  में आज,
अब जाकर जाना ये राज।
बोते हैं जो हम जीवन में कल,
जीते आज उसी को पल-पल।
लो उम्र इस बंधन की, सुनहरी सूर्य-किरण सी हो गयी,
कुछ बातें तेरी-मेरी ,फिर भी क्यूँ अनकही सी रह गयीं। "
                                         
               




October 01, 2014

आज जब  मैंने अपने यहाँ सफाई करने वाले लड़के से कहा कि ,"तुम्हारी  झाड़ू ख़राब हो गयी है ,नयी ले आओ "तो वह बोला ,"मैडम २ अक्टूबर के बाद मँगाइएगा ,आजकल झाड़ू महंगी बिक रही है। "मैं अपनी हँसी  रोक पाती ,इससे पहले ही वह फिर बोला ,"मैडम कल नहीं आऊँगा। कल पार्क में डबल ड्यूटी करनी है ,परसों साहब लोग झाड़ू लगाने आ रहे हैं तो कल पार्क चकाचक साफ़ किया जायेगा। "(दरअसल वो एक स्थानीय पार्क में सफाई कर्मी है और पार्ट-टाइम हमारे घर में भी काम करता है ,जिससे उसे कुछ अतिरिक्त आमदनी हो जाती है।) शाम को पति देव भी भुनभुनाते हुए घर में घुसे -"क्या यार दो अक्टूबर को भी ऑफिस जाना है। " मैंने तंज़ कसा  -अच्छा झाड़ू लगाने ! वो तुनके -हुंह ! हम क्यों लगाएंगे  झाड़ू ,जो १५ अगस्त और २६ जनवरी को गुब्बारे और कबूतर उड़ाते हैं वही लोग  झाड़ू भी लगाएंगे। पर जाना तो पड़ेगा ही। मुझे अपनी दादी की एक कहावत याद आई -एक जना  झाड़ू लगाये तो एक उसकी कमर पकडे। मोदी जी ने झाड़ू पकड़ने का संकल्प क्या लिया ,पूरा देश  झाड़ूमय  हो गया। लक -दक  सूट -बूट झाड़ कर ,झाड़ू फिरा कर ,हाथ झाड़ कर मीडिया को बाइट देने की होड़ मची है। प्रधानमन्त्री से लेकर मंत्री ,नेता अफसर सभी नयी नवेली झाड़ू हाथ में लेकर निकलेंगे और फिर कैमरे  की ज़द के बाहर  इन झाड़ूओं का अम्बार औने -पौने बिक जायेगा।  नयी झाड़ू तो मैं २ अक्टूबर  के बाद ही  खरीदूँगी। पर मज़ाक से इतर एक बात विचारणीय है कि  ,साल में एक दिन स्वच्छता अभियान अपनी प्रतीकात्मकता को साल  के अन्य ३६४ दिनों में भी बनाये रखे तो कुछ बात बने। दरअसल स्वच्छता अभियान से नहीं हमारी सोच में बदलाव से होगी। बड़ी-बड़ी कोठियों में मार्बल फर्श की स्कर्टिंग तक को नौकरों से रगड़वाने वाली सभ्रांत महिलाये ये सोचना भी नहीं चाहतीं कि ,उनके घर का कूड़ा नौकर कहाँ फेंक रहा है। हर गली ,नुक्कड़,चौराहों पर जमा कूड़ा ये तो बताता है कि  ,हमारे घर बहुत साफ़ हैं। पर यही कूड़ा नालियों में फंस कर सीवर जाम करता है और फिर सीवर भी सड़क पर बहता है।'मन की बात' लिखते समय  मैं गूगल बाबा की मदद  कम  ही लेती हूँ ,पर मेरे सीमित ज्ञान के हिसाब से भी कम से कम  हर १. ५ किलोमीटर पर एक सफाईकर्मी तो होना ही चाहिए। जब से सफाई का काम नगरमहापालिका द्वारा ठेके पर दिया जाने लगा ,तबसे सफाई व्यवस्था और  भी चरमरा गयी है। कर्मचारियों की कमी तो है ही। सफाई के आधुनिक उपकरण और सीवर साफ़ करने वाली मशीने भी स्टोर में पड़ी ज़ंग खाती हैं। शराब पीकर सफाईकर्मी सीवर में घुस कर सफाई करता है। आये दिन सफाई कर्मी हादसों का शिकार होते हैं ,जिसका कोई मुआवज़ा सरकार द्वारा नहीं दिया जाता। सफाई के काम को एक वर्ग-विशेष से जोड़ कर देखना -यह भी शायद हमारे देश की ही विशिष्टता है। मोदी जी की ये सांकेतिक पहल अच्छी है। इस अभियान के लोगो में गांधी जी के चश्मे का प्रयोग किया गया है। पर फैशन के इस दौर में गाँधी  का चश्मा आउटडेटिड है और फिर चश्मा चाहे कोई भी हो अगर उसके पीछे की आँखे बंद होंगी तो अपने घर से बाहर  की गंदगी हमें उतनी देर ही उद्वेलित करेगी ,जितनी देर जेब से रुमाल निकाल कर नाक पर रखने में लगती है। प्रधानमंत्रीजी और उनके अमले को यह समझना ज़रूरी है कि  ,देश ,प्रदेश ,शहर ,गाँव ,गली नुक्कड़ हर जगह कूड़ा -प्रबंधन एक गंभीर समस्या है ,जिसे बहुत ही व्यवस्थित और वैज्ञानिक ढँग  से दूर करने की पहल होनी चाहिए। निश्चय ही कोई भी व्यवस्था अपने उद्देश्य में तभी सफल होती है जब कर्तव्यों का निर्वहन ईमानदारी से हो। तो मेरे विचार से मोदी जी की झाड़ू पहले भ्रष्टाचार पर ही चलनी चाहिए। सड़के खुद-ब  -खुद साफ़ हो जाएंगी। 

September 18, 2014

"ये ज़िंदगी………
रफ़्ता -रफ़्ता  आगे बढ़ती
उम्र के साथ पूरी होती
कभी सपनो के पीछे भागती
तो कभी प्रारब्ध से हारती
करनी के संग-संग
पाप और पुण्य के खाते में
लम्हा-लम्हा दर्ज़ होती
ये ज़िंदगी ………" 

September 11, 2014

मुक्तक

"भीतर मन में बेचैनी  ,बाहर बड़े झमेले हैं ,
छुद्र स्वार्थ भरे जग में ,सुख -दुःख के सब  मेले हैं
कैसे छूटेगा जन्म-मरण का चक्र ये शाश्वत
हर पल मन तड़पे  है   ,मुक्ति  की राह टटोले है "

September 07, 2014

मुक्तक

"क्या होगा कल जीवन में ,किसे पता है
सोचा न आज ये ,बस इक यही खता है
झूठे सब रिश्ते नाते ,ये जग के बंधन
बस यही सत्य -जीवन की क्षणभंगुरता है "

September 06, 2014

"ये पल जीवन के "

"कुछ पल जीवन में होते हैं कितने भारी
और कुछ होते हैं कितने हलके
कुछ में बिखर जाते हैं मन के मनके
तो कुछ गुज़र जाते हैं हवा सा छू के
जी लो जीवन का हर लम्हा -लम्हा
हिस्से हैं ये ,इस जीवन में प्रारब्ध के "

September 04, 2014

जिन्हें देख कर सीखा
हँसना ,खिलखिलाना
बोलना ,चलना और दौड़ना
जिनसे सीखा
खुश रहना
ग़म सहना
नेकी करना
झुकना और स्वाभिमान
से सिर उठाना
जिसने सिखाया
गिर कर उठना
और सहला कर
चोट को आगे बढ़ जाना
वही माता-पिता मेरे
प्रथम गुरु !

August 29, 2014

लघु कथा -'श्रेय '

प्रज्ञा ने बारहवीं  की परीक्षा में पूरे प्रदेश में ,लड़कियों में प्रथम स्थान प्राप्त किया है। छोटे से कसबे के उस साधारण से घर में आज अखबार वाले प्रज्ञा का इंटरव्यू लेने आये हैं। पिता पारसनाथ बढ़-चढ़ कर बोल रहे हैं -"जी हाँ ! हमने अपनी लड़की और लड़कों में कभी कोई भेद-भाव नहीं किया ,बेटी के संघर्ष में हमेशा उसका साथ दिया। परदे के पीछे खड़ी , माँ पारो याद कर रही है -वो दिन जब अपनी सोने की अँगूठी  देकर उसने दाई  को मनाया था कि ,वो उसका गर्भपात ना करे ………,वो दिन जब सात माह का गर्भ पता चलने पर पति ने उसे पीटा था और वो मातम जब प्रज्ञा ने जन्म लिया था।  अखबार वाले ने पूछा,"तो बेटी प्रज्ञा अपनी सफलता का श्रेय अपने पिता को देना चाहेगी?"प्रज्ञा ने हाँ  में सिर हिलाया ,साथ ही माँ को परदे के पीछे से खींचती हुई बोली -"पर मेरे इस दुनिया में आने का श्रेय केवल मेरी माँ को देना चाहूंगी। "

July 31, 2014

साहित्य सम्राट मुंशी प्रेमचंद की जयंती पर उन्हें शत-शत नमन ! प्रेमचंद जी की प्रायः सभी पुस्तकें पढ़ने का सौभाग्य मुझे मिला है ,पर "गोदान"मेरी सर्वाधिक प्रिय पुस्तक है। यह उपन्यास आज भी उतना ही प्रासंगिक है ,जितना तब था ,जब इसे लिखा गया था। इसके अनेकानेक पठनीय अंशों में से एक अंश आप सबके लिए ----

"वैवाहिक जीवन के प्रभात में मादकता अपनी गुलाबी लालसा के साथ उदय होती है और ह्रदय के सारे आकाश को  अपने माधुर्य की सुनहरी किरणों से रंजित कर देती है। फिर मध्याह्न का प्रखर ताप  आता है ,क्षण-क्षण पर बगूले उठते हैं और पृथ्वी काँपने लगती है। लालसा का सुनहरा आवरण हट  जाता है और वास्तविकता अपने नग्न रूप में सामने खड़ी  होती है। उसके बाद विश्राममय सँध्या  आती है ,शीतल और शांत। जब हम थके हुए पथिकों की भाँति दिन भर की यात्रा का वृतांत कहते और सुनते हैं-तटस्थ भाव से ,मानों  हम किसी ऊँचे शिखर पर जा बैठे हैं ,जहाँ नीचे का जनरूरव हम तक नहीं पहुँचता। "

July 12, 2014

लघु कथा -"दान"      दीनदयाल जी को कोट के अंदर एक और स्वेटर पहनते देख कर ,बहू  रीना ने टोका ,"पापा पार्क में धूप  होगी ,स्वेटर से गर्मी लगेगी। " "नहीं  बेटा  ,गर्मी लगेगी तो कोट उतार कर हाथ में ले लूँगा। " दीनदयाल जी के मन में तो कुछ और ही था। पार्क से लौट कर दीनदयाल जी ,बहू से नज़रें चुराते रहे। शाम की चाय पर उन्होंने रीना से कहा ,"बेटा  आज मेरा स्वेटर चोरी हो गया ,मैंने तुम्हारी बात नहीं मानी ,पार्क में सच में बहुत गर्मी लगी। मैंने स्वेटर उतार कर बेंच पर ही रख दिया था ,पता नहीं कौन आँख बचा कर ले गया। "रीना ने भी झूठे गुस्से से कहा "देखा मेरी बात ना  मानने  का नतीजा। चलिए कल से पहनना हो तो पुराना  स्वेटर ही पहनियेगा। "दरअसल ड्राइवर ने उसे दोपहर को ही बता दिया था कि , पापा जी ने अपना स्वेटर एक गरीब आदमी को दान कर दिया है ,उसने देते हुए देख लिया था। दीनदयाल जी खुश हैं कि ,ज्यादा डाँट नहीं पड़ी। सस्ते में ही निपट गए। 

July 10, 2014

 -लघु-कथा -" ठूँठ "



सुबह के सात बज चुके थे ,अरुणा ने एक नज़र घडी पर डाली और सोचने लगी.. अब तक गंगा काम करने नहीं आई. क्या हुआ ? फिर बीमार पड़ी या बच्चों को कुछ हुआ .. कहलवाया भी नहीं ,इसी उधेड़बुन में उसने एक नज़र सिंक में पड़े बर्तनों पर डाली और एक गहरी साँस लेकर मन ही मन स्वयं को तैयार करने लगी कि,अब बर्तन भी धोने होंगे। तभी कॉलबेल बजी …. दूध वाला होगा … भगौना लेकर अरुणा ने दरवाज़ा खोला तो सामने पड़ोस का नौकर किशन खड़ा था ,बुरी तरह हाँफते हुए उसने बताया कि,गंगा ने अपने पति को जान से मारने की कोशिश की है ,किसी तरह उसका पति जान बचा कर भागा है. गंगा ने अपने आपको और बच्चों को कमरे में बंद कर लिया है और बाहर भीड़ लगी है. अरुणा स्तब्ध सी खड़ी थी .. गंगा जो चींटी मारने की भी हिम्मत नहीं रखती थी ,अपने पति को कैसे मार सकती है . वह पति को बता कर घर से निकल पड़ी ... उसके कदम तेजी से आगे बढ़ रहे थे पर मन पीछे को भाग रहा था .. सात साल पहले गंगा अपनी पाँच साल की बेटी को लेकर अरुणा के घर काम की तलाश में आई थी ,अरुणा को भी तब ज़रुरत थी तो उसने गंगा को रख लिया।
 गंगा बेहद सरल और हँसमुख स्वभाव की थी , अरुणा को कभी उससे कोई परेशानी नहीं हुई. गंगा का पति ज्यादातर घर में ही रहता था ,कामचोरी की आदत और शराब की लत के कारण किसी नौकरी में टिक ना पाता था . इसी बीच उसके तीन बच्चे और हो गए , पैसों को लेकर अक्सर उसकी किच-किच गंगा से होती ,जब-तब वह गंगा पर हाथ भी उठा देता . चोटों के निशान के साथ जब भी गंगा काम पर आती ,अरुणा से नज़र चुराती रहती, और जब भी अरुणा ने उससे ज्यादा पूछने की कोशिश की ,वह आँखों में आँसू भर कर खिस्स से हँस कर कहती "मेरा नसीबा .... बीवी जी ,ऐसे ही पार लगूंगी ." उसकी चोट पर दवा लगाते हुए अरुणा क्रोध से भर जाती और कहती ,"मैं  तेरी जगह होती तो उसे जेल में भिजवाती " तब भी गंगा हँस कर साड़ी का पल्लू मुँह में दबा कर कहती "ना-ना बीवी जी मरद है मेरा "
      गंगा का घर आ गया .... बाहर भीड़ लगी थी,अरुणा ने दरवाज़ा खटखटाया और कहा "गंगा  दरवाज़ा खोलो ,मैं हूँ -अरुणा " अंदर एक कोने में खून से सना बाँका (एक औज़ार ) पड़ा था। कल ही तो गंगा ने उसके माली से यह कह कर ये बांका लिया था कि ,"घर के बाहर पेड़  का ठूँठ  काटना है। " गंगा की बारह वर्ष की बेटी घुटनो में मुँह  गड़ाए बैठी थी। गंगा क्रोध से हाँफ  रही थी,अरुणा को देखते ही उससे लिपट गयी "बीबी जी उसने बाप- बेटी के रिश्ते की भी मर्यादा नहीं रखी  ,मैं क्या करती। "अरुणा ने उसे सँभालते हुए कहा " ठूँठ अभी कटा नहीं है , अब चल मेरे साथ पुलिस- स्टेशन। "गंगा   ने बेटी की रक्षा के लिए वो कदम उठाया जो उसने कभी सोचा भी नहीं था। 

June 26, 2014

क्योंकि सपने कभी नहीं मरते..................

वो मेरी ही हमउम्र महिला थीं। शायद मुझसे कुछ बड़ी या छोटी हों। मैं उनसे लगभग हर शाम मिलती थी। जिम से घर के रास्ते में शॉपिंग काम्प्लेक्स में किसी जनरल स्टोर पर या सब्जी की दूकान पर या फिर दवा की दुकान  पर। यह एक संयोग ही होता था ,मेरी इसके अलावा  उनसे कोई पहचान नहीं थी। मैंने देखा था कि ,उनके चेहरे पर एक अजीब सी  उदासी पसरी रहती थी। कई दिनों की मुलाक़ात के बाद हमारे बीच हलकी सी मुस्कराहट का आदान-प्रदान होने लगा था। उस रोज़ उनसे सब्जी की दुकान पर मुलाक़ात  हुई। हम दोनों ही अपनी-अपनी खरीदारी में लगे थे कि ,अचानक सब्जी वाले ने उनसे पूछा  "आज आप बहुत खुश लग रही हैं ,क्या बच्चे आने वाले हैं ?" उन्होंने हँस  कर कहा "हाँ पूरे एक साल बाद दोनों बच्चे एक साथ आ रहे हैं। " मैंने भी ग़ौर  किया कि , आज वो काफी उत्साहित दिख रही थीं। सब्जी वाले की संवेदनशीलता मुझे छू  गयी और उस रोज़ मैं उससे बिना मोल-भाव किये सब्जी लेकर चल पड़ी। रास्ते में सब्जी के थैले को इस काँधे  से उस काँधे  करती हुई मैं उन महिला के बारे में ही सोचती रही कि ,आज वो कितना खुश थीं और आने वाले कुछ दिन उनके लिए कितनी ख़ुशी लेकर आयेंगें।  मुझे भी अपने बच्चों की याद आई। फिर मैंने सोचा  कि , मेरी जैसी अधिकाँश महिलाओं को उम्र के इस पड़ाव पर एक जैसी परिस्थितियों का ही सामना करना पड़ता है-पति अपने करियर के चरम को छूने की ज़द्दोज़हद में ,बच्चे बड़े होकर पढाई या करियर में व्यस्त -घर से बाहर,माता- पिता और सास -श्वसुर या तो साथ छोड़ चुके होते हैं या उम्र के अंतिम पड़ाव पर शारीरिक व्याधियों से जूझते हुए और सबसे बढ़ कर स्वयं के शरीर में भी हार्मोनल परिवर्तन तेजी से हो रहे होते हैं और थकान व् चिड़चिड़ापन हर वक्त तारी रहता है। जो महिलाएं घर से बाहर काम के सिलसिले में निकलती हैं ,उन्हें भी इन विषम परिस्थितियों से दो चार होना ही पड़ता है। घर में रहने वाली महिलाओं का रूटीन भी बदल जाता है और उन्हें खाली  वक्त मिलने लगता है पर इस वक्त में करें क्या -ये समझ नहीं आता। इतने वर्षों पति और बच्चों के इर्द -गिर्द घूमती दिनचर्या में उनका अपना वक्त भी जो कहीं ग़ुम  सा हो गया था ,वही अब उन्हें खाने को दौड़ता है। उन महिला के चेहरे पर भी उदासी का कारण भी यही खालीपन ही था। मुझे लगता है कि  ,इस वक्त हर महिला को अपने स्वास्थ्य के प्रति सचेत और स्वयं के प्रति थोड़ा सा स्वार्थी हो जाना चाहिए।हममे  से प्रायः सभी के मन में कुछ न कुछ करने की या सीखने की चाहत रहती ही है। कोई न कोई सपना सभी के मन में कुलबुलाता ही है। जीवन की आपा -धापी में हम इस बेचैनी को 'समय कहाँ है 'के बहाने नज़रअंदाज़ करते रहते हैं। यही समय है जब हमें अपने मृतप्राय शौकों को फिर से जीवित कर लेना चाहिए और सपनों की छूटी डोर को आगे बढ़ कर थाम लेना चाहिए। देर कभी नहीं होती और कुछ भी शुरू करने के लिए उम्र कोई बंधन नहीं। क्योंकि ,सपने कभी नहीं मरते  ,जीवन की अंतिम साँस  तक वो हमारे प्रयासों के इंतज़ार में रहते हैं। 

June 15, 2014

नमस्कार! दोस्तों ,आज पितृ -दिवस (फादर्स -डे ) के अवसर पर आप सबसे पुनः रूबरू हूँ। दोस्तों ,पिता का आशीष और स्नेह ,हम सबके साथ आजीवन रहता है-चाहे वो शरीर में हों या ना  हों। पिता के साथ ,स्नेह ,प्यार -दुलार ,डाँट -अनुशासन से जुड़ीं  यादें ,जीवन -पर्यन्त हमें सहेजती और संभालती  रहती हैं।

यह एक संयोग ही है कि , आज फादर्स -डे पर मेरे पापा मुझसे बहुत दूर अमेरिका में हैं और बीमार हैं। उनसे दूरी की छटपटाहट में मैंने भी कुछ लिखा है ,साझा कर रही हूँ।
             
         आदरणीय पापा ,
                                    याद नहीं ,इससे पहले कब आपको ख़त  लिखा था। फ़ोन ने हमारे संवाद को कितना औपचारिक बना दिया है। कई बार आपसे बात "आप ठीक हैं ना ?" से आरंभ  होती है और "ठीक है पापा अपना ध्यान रखियेगा " पर ख़त्म होती है।  फ़ोन रखने के बाद भी बहुत कुछ कुलबुलाता है मन में -जो कभी कह नहीं पाती ,आज कहती हूँ…………पापा माँ  के आँचल में अगर ममता की गर्माहट मिली तो आपका स्नेह सदैव ठंडी छाँव के समान  रहा है।
                                             आज भी याद है -आपका हाथ पकड़ कर सड़क पार करना ,विक्की पर आपके पीछे बैठ कर आपकी बुशर्ट को कस  कर मुठ्ठी में भींचना ................ वो सहमना आपकी आँखों से और रिपोर्ट -कार्ड पर  साइन करवाते समय आपके मनोभावों को अपनी  आँखों से पढ़ना।आपका  हँसना  माँ  की शिकायतों पर और फिर हमें सीमाओं में रहना सिखाना। आज उम्र के इस पड़ाव पर भी जब मैं खुद दो युवा बच्चों की माँ हूँ,आपकी सीख और आदर्शों को गुनती हूँ। मुझे गर्व है कि  ,आपने पैसा नहीं नाम कमाया और हमारी फरमाइशों को पूरा करते समय अपने त्याग का एहसास तक नहीं होने दिया। पापा ,क्या हुआ गर आज आप ज्यादा चल नहीं सकते ,जीवन रूपी मैराथन में आपने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया है। मुझे विश्वास  है कि  ,आप इस बार भी उठ कर खड़े होंगे ,क्योंकि आपको पता है कि  ,हमें आज भी आपकी उतनी ही ज़रुरत है।
                                                                                                                      आपकी प्रीति  

June 07, 2014

वर्ण के उच्चारण मे जो समय लगता है उसे मात्रा कहते हैं। मात्राएं दो प्रकार की होती हैं। गुरु और लघु। गुरु मात्रा के उच्चारण मे लघु से दुगुना समय लगता है।

आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ

ये सारे स्वर गुरु हैं और इनसे युक्त हर व्यंजन भी गुरु माना जाएगा।

इसके अलावा अनुस्वार युक्त व्यंजन या स्वर भी गुरु माने जाएंगे। जैसे - अंत(२१), कंस(२१), हंस(२१)

विसर्ग युक्त स्वर या व्यंजन भी गुरु माने जाते हैं। जैसे - पुनः (१२), अतः (१२)

चंद्रबिंदुयुक्त व्यंजन या स्वर लघु माने जाते है यदि वो किसी अन्य गुरु स्वर से युक्त न हो तो। जैसे - हँस (११), विहँस (१११)

लेकिन आँख (२१), काँख (२१)

आधे वर्ण की गणना नहीं होती किंतु वो आधा वर्ण अपने पूर्ववर्ती लघु वर्ण के साथ मिलकर उसे गुरु कर देता है परंतु यदि पूर्ववर्ती वर्ण गुरु ही है तो कोई अंतर नहीं आएगा वो गुरु ही रहेगा। जैसे - 

इच्छा - २२
शिक्षा - २२
आराध्य - २२१
विचित्र - १२१
पत्र - २१

यहाँ कुछ अपवाद भी हैं जिनका ध्यान रखा जाना जरुरी है। कुम्हार (१२१), कन्हैया (१२२), तुम्हारा (१२२), उन्हें (१२), जिन्हें (१२), जिन्होनें (१२२) जैसे शब्दों में आधा वर्ण अपने पूर्ववर्ती लघु वर्ण को गुरु नहीं करता।

अ, इ, उ आदि स्वर लघु होते हैं और इनसे युक्त व्यंजन भी लघु ही होंगे। जैसे - कम (११), दम (११), अंतिम (२११), मद्धिम (२११), कुमार (१२१), तुम (११)
मुक्तक



"भूखे पेट , नंगे बदन बिलखता बचपन
गरीबी के अभिशाप से सिसकता है मन
देखने को रोज़ चूल्हे से उठता धुआँ
हाड़ -तोड़ मेहनत  से ना  थकता ये  तन। "



"ज़िन्दगी को समझते हैं एक जुआ
प्रतिक्षण  लाँघते  मौत का कुआँ
ये  लत है नशे की गफलतों की
घुटता  है मन ,साँसे धुआँ -धुआँ। "


"ये दुनिया है नशे की ग़फ़लतों  की
जिंदगी से दूर मौत से उल्फ़तों  की
साँसे धुआँ  औ क़तरा -क़तरा वज़ूद
अल्लाह! आरज़ू .......  तेरी रहमतों की "

May 30, 2014


यादें-----दो क्षणिकाएँ



स्मृति -पटल पर है अंकित
बचपन की यादों का कोलाज
वो माँ का आँचल,
पिता का साया
पेड़ पर चढ़ना
नंगे पाँव दौड़ना
वो उन्मुक्त ,बेपरवाह
साँसों की धक-धक
सुनाई देती है अब भी
कुछ तस्वीरें आज
मिटाना चाहती हूँ
पर बचपन की यादें
तो अमिट होती हैं ना ?
......................
अक्सर आते हैं
अतीत के सागर से
कुछ उफ़ान
लाते हैं संग में
भूली यादों के
ज्वार -भाटे
मैं किनारे ही खड़ी
इंतज़ार करती हूँ
उनके लौट जाने का
मिल जाते हैं कुछ सीप
यादों के तुम्हारी
सहेज लेती हूँ
ज़ेहन में
गुज़रे पलों के मोती

May 23, 2014






अभय-दान 


जगदीश बाबू पिछले बीस दिनों से कोमा में हैं। एक -एक करके शरीर के सभी अँग  जवाब दे रहे हैं ,अब तो डॉक्टरों  ने भी उम्मीद छोड़ दी है। पत्नी निर्मला  उनके सिरहाने ही बैठी रहती हैं। शहर का बड़ा अस्पताल ,नामी डॉक्टरों की  टीम ,तीमारदारी के लिए होड़ लगाते लोग.……………… आखिर जगदीश बाबू का बेटा एक वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी जो था। बेटा  प्रफुल्ल और बहू  नीता बेचैनी से बार -बार कमरे का चक्कर लगा कर चले जाते। निर्मला  उनके मनोभावों को साफ़ -साफ़ पढ़ सकती है। बाहर  कोई प्रफुल्ल को सलाह दे रहा है -"साहब गौ -दान करा दीजिये ,प्राण अटके हैं पिताजी के आराम से चले जाएंगे " किसी ने पंडित से संकल्प करने की राय दी। निर्मला  ने नज़र भर ,जगदीश बाबू को देखा और  ह्रदय पर पत्थर रख कर पति के कान में कहा "सुनो जी आप आराम से जाओ ,मैं आपके बिना रह लूंगी "जगदीश बाबू मानो  यही सुनना  चाहते थे,निर्मला  ने उन्हें नए सफर के लिए अभय-दान दे दिया था।  कुछ ही पलों में उन्होंने शरीर त्याग दिया।
उनका हाथ अब भी निर्मला  के हाथ में है।  कमरे में हलचल बढ़ गयी है और निर्मला  के ह्रदय में भी। 

May 18, 2014

 'क्षणिका '

 "अक्सर आते हैं
 अतीत के सागर से
 कुछ उफ़ान
 लाते हैं संग में
 भूली यादों के
 ज्वार -भाटे
 मैं किनारे ही खड़ी
 इंतज़ार करती हूँ
 उनके लौट जाने का
 मिल जाते हैं कुछ सीप
 यादों के तुम्हारी
 सहेज लेती हूँ
 ज़ेहन में
 गुज़रे पलों के मोती "

April 08, 2014




"राम तुम्हें लेना ही  होगा अब अवतार,
एक बार नहीं ,आना होगा  सौ-सौ बार।
हुई हानि धर्म की ,फैला पाप चहुँ ओर ,
कब आओगे तारण को हे! नाथ पालनहार।


*******************************

थकी वसुंधरा देखो ढोती पापियों का भार ,
कहाँ गया वो सत्यशील  आचरण सदाचार।
एक तुम्हारा ही सहारा ,मत करना अब निराश ,
आ जाओ हे!दशरथनन्दन करने को उपकार।


*********************************

आये थे तुम करने को एक दशानन का संहार ,
सहा तुम्हीं ने था तब भी हे!सृष्टि-सृजनहार।
हैं यहाँ अब शत मुख वाले शत-शत रावण ,
हो प्रगट अब कोटि-कोटि रूपों में कर दो चमत्कार। "

April 07, 2014

             "विस्मृति"


" आजकल भूलने लगी हूँ ,मैं बहुत …… 
 बत्ती जला कर बुझाना या खुला दरवाज़ा उढ़काना ,
 ढूँढती  फिरती हूँ चीज़ें रख कर ,इधर-उधर। 
 अक्सर भूल जाती हूँ किसी के जन्मदिन की  ताऱीख ,
 याद ही नहीं रहता कल फ्रिज़ में रखा था क्या ,
 भूलती हूँ खाना दवा और उठाना आँगन से कपडे। 
 सोचती हूँ ये बढ़ती उम्र का असर है या पुराना ही कोई सिलसिला ,
 क्योंकि भूली तो पहले भी बहुत कुछ थी................ 
 छोड़ कर भुलाया बाबुल का अँगना  और रिवाज़ ,
 भूली थी अपना बचपना और दिल की  आवाज़। 
  भूलती ही आयी हूँ हर कड़वी बात और अपने जज़्बात ,
  फूलों की  महक में भुला कर काँटों की  चुभन ,
 याद ही नहीं कितना अनसुना किया है मन। 
 बिसरा कर सुध घर की  चाहरदीवारी में भूल ही गयी थी खुद को ,
 कहाँ था याद कि ,एक दुनिया देहरी के उस पार भी है ,
 और सपने भी यहीँ बैठे हैं छत की  मुँडेर  पर। 
 पर वो भूलना भी कोई भूलना था ................ 
 इसीलिए सबने भुला ही दिया उन बातों को ,
 अब जो मैं भूलती हूँ ,तो सब कहते हैं -
 तुम्हें भूलने की  बीमारी हो गयी है............ " 

February 27, 2014

१-मात्रा --२०

हे ! भोलेनाथ ,नीलकंठ त्रिपुरारी ,
हुई अबेर ,अब सुन लो अरज़ हमारी।
ले लो अब ,अवतार तुम संहारक का ,
अधर्म के बोझ से धरती है भारी।



२-मात्रा -१७

जटा  विराजे गँगा  की  धारा ,
बन नीलकंठ ,पीकर विष सारा।
आये हो हरन को सारे कष्ट ,
जब-जब हमने ,तुम्हें पुकारा।




February 14, 2014

Is pyar ko main kya naam doon ........

कई वर्ष पहले एक फ़िल्म आयी थी -"मेरे महबूब "उस फ़िल्म में आधी फ़िल्म के बाद नायक -नायिका की  नज़रें चार हुई थीं। तब वो फ़िल्म सुपरहिट हुई थी। वो दौर ही कुछ और था ,तब प्यार दिलों में उतरने से पहले फ़िज़ाओं में रचता -बसता  था। प्यार होने से पहले प्यार की  आहट  और प्यार होने के बाद प्यार की  ख़ुमारी  के बीच एक फासला  होता था। 'प्यार दीवाना होता है,मस्ताना होता है ' की  बेफिक्री थी तो 'प्यार से भी ज़रूरी कई काम हैं ,प्यार सब कुछ नहीं ज़िंदगी के लिए 'का नैतिक- बोध भी था। जो प्यार करते थे उसे निभाते भी थे। ,हाँ !'जो अफ़साना किसी अंज़ाम तक लाना न हो मुमकिन ,उसे इक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा 'जैसी मिसाल भी देखने को मिलती थी। अपवाद हर युग में होते हैं ,पर पहले प्यार सिरदर्द का सबब नहीं था।
                                                  आज के 'तेरा प्यार यार हुक्कामार 'और 'राम चाहे लीला,लीला चाहे राम ,दोनों के लव में दुनिया का क्या काम 'के दौर में प्यार मानो उपभोग की  चीज़ बन कर रह गया है। हुक्के से निकले धुएँ  के छल्लों में प्यार की  पवित्र भावना कहीं खो गयी है। आज प्यार करने वालों को दुनिया तो क्या ,अपने "अपनों" की  भी परवाह नहीं है। आज फिल्मों की    शुरुआत ही नायक -नायिका के हमबिस्तर होने से होती है। पहले प्यार के सफ़र में समय का मेकअप ,फिर ब्रेकअप और कभी-कभी पैचअप भी। जहाँ पैचअप नहीं होता वहाँ बात अक्सर फेसबुक और ट्विटर पर एक -दूसरे  की फ़ज़ीहत पर ही ख़त्म होती है। संत वैलेंटाइन ने प्यार का सन्देश दुनिया को दिया अच्छा किया ,मगर आज वो जीवित होते तो प्यार के 'तमाशे'को देख कर शर्म से सर झुका लेते। मैं प्यार के ख़िलाफ़  नहीं ,परन्तु आज की  पीढ़ी को अगर अपने निर्णय लेने की  स्वतंत्रता और अधिकार मिला है तो उन्हें अपने परिवार और समाज के प्रति दायित्व-बोध को भी ताक  पर नहीं रखना चाहिए। मैंने बहुत दिनों से कुछ लिखा  नहीं था। आज शाम को जिम से लौटते समय सिटी-मॉल के सामने एक जोड़े की  बेखुदी और बेशर्मी देख कर ये लिखने  पर मज़बूर हूँ -'इस प्यार को मैं क्या नाम दूँ  ……'

January 01, 2014

नववर्ष के नवप्रभात को देखती हूँ

पाया है ,सहज ही बहुत कुछ  जीवन में ,
पिया है ,गरल  भी कभी मन ही मन में ,
सुख -दुःख की इस  अदभुत बिसात को देखती हूँ।

नववर्ष के नवप्रभात को देखती हूँ।

ठिठक कर रुक गए थे कदम जिस मोड़ पर।,
बढ़ चली हूँ वहीँ से टूटी कड़ियाँ जोड़ कर ,
सीखा था जिनसे सम्भलना ,उन हालात  को देखती हूँ।

नववर्ष के नवप्रभात को देखती हूँ।

चाहा था बदलना ,हर बात को जब-तब ,
टकरा कर यूँ ही शिलाओं से बेमतलब ,
न बदली खुद में ही जो ,उस बात को देखती हूँ।

नववर्ष के नवप्रभात को देखती हूँ।

मोड़ कर मुँह अब  सारी  निराशाओं से ,
मुक्त हो  अतीत की सभी वर्ज़नाओं  से ,
आशाओं के नवीन प्रपात को देखती हूँ।

नववर्ष के नवप्रभात को देखती हूँ।