February 15, 2013

बचपन में ये गाना हमने खूब सुना .......................
"है ना बोलो-बोलो मम्मी बोलो-बोलो,पापा बोलो-बोलो,पापा को मम्मी से,मम्मी को पापा से प्यार है ,प्यार है।"
पापा-मम्मी बच्चों से प्यार करते हैं ये तो हमें पता था,पर वो एक-दूसरे से भी प्यार करते हैं -ये बात हमें ये गाना सुन कर ही समझ में आयी।बात ये नहीं है कि ,हम आज के बच्चों की तरह चतुर-सयाने नहीं थे ,बात है कि  तब प्यार के प्रदर्शन का या यूँ कहें कि ,प्यार जताने का चलन नहीं था।भारत में जब वैलेंटाइन-डे आया,तब तक मै  दो बच्चों की माँ बन चुकी थी और मेरे बच्चे ये गाना गाने लायक हो चुके थे।
           हाँ  तो   बात प्यार की है तो एक दौर वो था ,जब प्यार का इज़हार होता था ........कॉलेज में फ्री पीरियड में,घर की छतों की मुंडेर पर ,परदे के पीछे, बगीचे में पेड़ के नीचे या किसी भी कोने- अतरे   में।दिल से दिल तक प्यार की बात पहुँचने में अरसा लग जाता,कभी मंजिल मिलती और कभी दिल की बात दिल में ही रह जाती।दिल को बहलाने के लिए रफ़ी,मुकेश के गाने ही काफ़ी होते।एक दौर आज का है ................इन्टरनेट है,स्मार्ट फ़ोन हैं ,चुटकी बजाते ही, दिल की बात अगले दिल तक ! अंजाम चाहे जो हो,आगाज़ तो हो ही जाता है।अब प्यार में पड़ना जरूरत बन गया है या यूँ कहें कि,प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया है।जो भी हो ...... आज मै क्या गलत है और क्या सही,इस चक्कर में नहीं पड़ने वाली हूँ।मैंने वो दौर भी देखा है और ये भी,तो इतना जरूर कहूँगी कि,प्यार तब भी 'दिल दा मामला' था और अब भी है।दुनिया चाहे कितनी बदल जाये,प्यार की तासीर तो वही  रहेगी।
 प्यार करने वालों का प्यार अमर रहे इसी दुआ के साथ जाते-जाते फिर एक गाना ............."सोलह बरस की बाली  उमर  को सलाम,ए  प्यार तेरी पहली नज़र को सलाम"

February 11, 2013

"आया बसंत ,छाया  बसंत ,कण-कण  ने गाया  बसंत।
            झर  गए पीले पात सभी,कोंपलों ने देखा नव-प्रभात अभी,
              सृष्टि  की नवीनता में,होगा मन की मलिनता का अंत।
आया बसंत,छाया बसंत,कण-कण ने गाया बसंत।
               फूली सरसों लो बनी पीताम्बर,आमों के भी बौराए शिखर,
                धरती की इस उदारता में,होगा मानव की कृपणता का अंत।
आया बसंत,छाया बसंत,कण-कण ने गाया बसंत।
                   फूलों से बगिया महकी-तितली बहकी,मधु-रितु के मद में डूबी-कोयल कूकी,
                    प्रकृति की इस सरसता में होगा,जीवन की नीरसता का अंत।
आया बसंत,छाया  बसंत,कण-कण ने गाया बसंत।"



February 06, 2013

सर्दी का पलटवार ...............................बचपन में जब भी फरवरी का महीना आता और हम भाई-बहन स्वेटर उतार कर खेलते तो हमारी दादी कहतीं ,"जरा संभल कर रहो, जाड़ा जाते-जाते दुलत्ती जरूर झाड़ता है"समय बीता हम सब बड़े हो गए ,हमारे बच्चे भी बड़े हो गए ,पर दादी की कहावत तो साथ ही रही। अब शायद हमारे बच्चे इसे दोहराएँ।  ये भूमिका इसलिए बाँधी क्योंकि ,अब जो मै  लिखने जा रही हूँ ,वो एक सत्य घटना है जो मेरे साथ घटी। वर्ष 2007 की फरवरी का दूसरा हफ्ता रहा होगा , जाड़ा  बहुत कम हो गया था और मै  सोच रही थी कि , कुछ स्वेटर अंदर रख देती हूँ। तभी एक दिन अचानक मौसम ने करवट ली और तेज हवाएं व ओलों के साथ बारिश शुरू हो गयी।जाते-जाते सर्दी फिर पूरे लाव-लश्कर के साथ वापस आ धमकी।मैंने मन ही मन दादी की कहावत फिर दोहराई।तब हमारे घर के बगल में पड़े खाली प्लाट में कुछ मजदूर झोपड़ी  बना कर रहते थे। उस रात लगातार हमारे बेडरूम की बाहरी  दीवार से खटर -पटर की आवाज़े  आती रहीं,हम पति-पत्नी की नींद कई बार टूटी। लेकिन सुबह उठ कर हम अपनी-अपनी दिनचर्या में लग गए और रात की बात भूल गए। शाम को ऑफिस से आकर मेरे पति को रात की बात याद आ गयी और वो उधर    देखने चले गए। उन्होंने आकर बताया कि ,झोंपड़ी में मजदूर की पत्नी ने बच्चे को जन्म दिया है और जच्चा-बच्चा  को सर्दी से बचाने  के लिए वो कोई जड़ी-बूटी कूट रहा था। हम दोनों ने तय किया कि ,उन्हें पुराने कम्बल, चादर वगैरह दे देंगे।मैंने सोचा सुबह बेसमेंट में जाकर निकालूँगी और अपने काम में लग गयी।अगली सुबह जब मै  सामान ले कर वहाँ  पहुँची  तो पता चला कि , बच्चा पिछली रात मर गया और उसकी माँ को तेज बुखार है। मै  भारी  मन से सामान  दे कर चली आई।उस रोज़ मुझसे खाना न खाया गया।कितने ही दिन मै  आत्मग्लानि  से भरी रही। फिर मैंने एक सबक लिया कि ,अगर आपको  किसी की मदद करने का अवसर मिले और आप करना भी चाहते हों  तो तुरंत करें। उस समय उठाई गयी थोड़ी सी असुविधा बाद में मिले आत्मसंतोष के आगे कुछ मायने नहीं रखती।