April 27, 2012

 पिछली दो पोस्ट की आखिरी कड़ी



उस सुबह मुझे इन्तजार था  अखबार का.............पर एक दिन पहले खोदे गए गढ्ढे  में बाघ गिरा या पड़वा, ये जानने के लिए मुझे तीन-चार दिन इन्तजार करना पड़ा .खबर मिली कि वन-विभाग ही गढ्ढे में गिर पड़ा.मै कुछ लिखती इससे पहले ही हवा उड़ी कि,रहमानखेडा  में ही टाइगर-सफारी बनाई जा   सकती  है और एक जोड़े बाघ-बाघिन से ये शुरुआत हो सकती है.बताया  गया कि यहाँ का कंटीली झाड़ों से घिरा जंगल और साल भर बहता 'बेह्ता' नालाऔर  शिकार के लिए नील गायों की बहुतायत बाघ के स्थायी निवास के लिए अनुकूल है. पक्ष में एक तर्क ये भी दिया गया कि इसी बहाने लोग काकोरी-शहीद स्मारक भी देख लेंगे. मुझे याद आई उस शेखचिल्ली की जो एक टाई से मैचिंग सूट सिलाने चल पड़ा था.अब टाइगर-सफारी बनाना कोई मुँह का कौर तो है नहीं कि उठाया और खा लिया .वहाँ आबादी भी है,आमों के बगीचे हैं,एक अनुसन्धान -केंद्र है जहाँ लगभग तीन सौ  लोग काम करते हैं. फिर माना कि सब हटा-बढ़ा कर वहाँ किसी तरह टाइगर -सफारी बन भी गयी तो क्या गारंटी है कि वहाँ से भी भटक कर बाघ शहर के बीचो-बीच नहीं आ जायेगा. तब क्या करेंगे ? उत्तर-प्रदेश की राजधानी कहीं और ले जायेंगे?पर हम भारतीयों की एक खासियत तो है कि हम मुंगेरी लाल के हसीन सपनो में खो कर हवाई महल बनाने में देर नहीं लगाते. अगले ही दिन से अखबारों में आने लगा कि  'गाँव वाले खुश हैं' 'यहाँ पर्यटक-स्थल बनेगा' 'रोजगार के अवसर बढ़ेंगे ' सरकारी मुआवजा मिलेगा' ये होगा........वो होगा.......इत्यादि-इत्यादि. आजकल का  मीडिया भी बिना कान देखे 'कौवा कान ले गया'.....कौवा कान ले गया ........का शोर मचाने में  पारंगत है. मैं भी सोचने लगी कि कार से जायेंगे और दो घंटे में बाघ- शाघ  देख कर वापस आ जायेंगे.मुझे फिर से अपनी केरल यात्रा याद आई .
कल सुबह का अख़बार देखा तो पहले ही पृष्ठ पर खबर दिखी 'आख़िरकार पकड़ा गया बाघ' पूरा गाँव उसे देखने के लिए उमड़ा. बड़े से पिंजरे में कैद करके उसे पहुँचाया गया दुधवा अभयारण्य में. इस तरह मिशन टाइगर समाप्त हुआ.सबने राहत की सांस ली.गाँव वालों को आजादी मिली दहशत से ,आमों के भी दिन बहुरे.मगर बाघ के फिर से लौटने का खतरा तो बरकरार  ही है. ढाई महीने की मशक्कत के बाद बाघ को न पकड़ पाने पर उस क्षेत्र को ही बाघ संरक्षित घोषित करने की बात करना, मेरे विचार से एक गलती को छोटा करने के लि ए दूसरी बड़ी गलती करने जैसा ही था. अब जब बाघ पकड़ा जा चुका है तो सरकार की प्राथमिकता दुधवा अभयारण्य को अच्छी तरह सील करने की होनी चाहिए 'ताकि फिर कोई बाघ भटक कर बाहर ना आ सके.और अगर काकोरी का नाम आया ही है तो  बाघ का ये प्रवास व उस पर कुर्बान पड्वों,नील गायों ,भैंसों का जीवन, और  सबसे बढ़ कर वन-विभाग की मेहनत सब  सार्थक होंगे अगर अब भी  सरकार काकोरी के शहीद-स्थल को फिर से सँवारती है .अगर ऐसा हुआ तो मैं कहूँगी कि नब्बे सालों के बाद  दुधवा से एक बाघ आया था हमें भारत माता के शेर-दिल सपूतों की याद दिलाने....................

April 10, 2012

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पिछले साल मैं परिवार के साथ केरल घूमने गयी.काफी खर्चा-बर्चा करके हम periyaar  wild life sanctuary तक गए और सिर्फ जंगली भैंसे   देख कर ही लौट आये. अभी पिछले हफ्ते अखबार में पढ़ा कि लखनऊ के पास रहमानखेडा में एक मंत्री महोदय हाथी पर बैठ कर बाघ से आँखे चार  कर आये ,सच!बड़ी कोफ़्त हुई  गौरतलब  है कि ये मुलाकात सरकारी थी,जिसमे हजारों के वारे-न्यारे हुए. ये वही बाघ है जिसका ज़िक्र मैंने २३ फरवरी को लिखे ब्लॉग में किया है .पिछले तीन महीने से ये बाघ इसी इलाके में घूम रहा है. बाघ मोशाय ने दुधवा-अभयारण्य जिन भी परिस्थितिओं में छोड़ा हो पर लगता है इन्हें यहाँ की आबो-हवा रास आ गयी है. शिकार करने को बंधे-बंधाये जानवर मिले और घूमने को पूरा इलाका ,तो दुधवा किसे याद आएगा. कौन कहता है कि सरकारी खर्चे पर ऐश करना केवल मंत्रिओं और अफसरों को ही आता है.'मुफ्त की ऐश ' बड़ी बुरी लत होती है. बाघ को तो सपने में भी इल्म न होगा कि बागों में आम में कीड़े लग रहे हैं .अब बागवान अपनी जान बचाएं या आम की.गाँव वालों की सहनशीलता की भी दाद देनी पड़ेगी ,इतने दिनों से दहशत झेल रहे हैं. इस बीच प्रदेश  की सरकार बदल गयी ,सरकारी अमला बदल गया ,और तो और मौसम भी बदल गया मगर वन-विभाग और बाघ के बीच 'तू डाल-डाल मैं पात-पात ' का खेल जारी है. आज सुबह अखबार में पढ़ा कि अब गढ्ढा खोद कर उसके पास पड़वा बाँध कर  उसमे बाघ को गिराने की तैयारी है.बाघ के रास्ता  भटक कर आबादी के बीच पहुँचने में कहीं न कहीं  चूक हमसे ही हुई है.तो ना पहले हम गढ्ढा खोदते अपने लिए और ना खोदना पड़ता अब बाघ के लिए.फिर भी देखते हैं इस गढ्ढे में कौन गिरता है बाघ या पड़वा .मुझे इंतज़ार है कल सुबह के अखबार का........................................
"मन के आँगन में है इक 'बचपन'का कोना,
छाया पितृ -स्नेह की ,माँ की ममता का बिछौना.

निश्छल सपनों की खेती चंचल अरमानों की फसल,
सुख के सागर में डूबा हर दुःख से अलोना .

मन के आँगन में................................................

जब भी देखा रुक कर, सजा है सुन्दर हर वो पल,
गीत-खिलौने ,गुड़िया- झूले,इक पल हँसना इक पल रोना.

मन के आँगन में..............................................................

थामा इसी ने मुझे, जब-जब दरका अन्तःस्थल,
भर कर मीठी यादों से किया है ह्रदय को ख़ुशी से दूना.

मन के आँगन में है इक 'बचपन' का कोना ,
छाया पितृ -स्नेह की ,माँ की ममता का बिछौना "   
वो ससुराल में मेरा पहला दिन था.मई की झुलसाती गर्मी और शादी के घर की गहमा-गहमी.पूरा घर मेहमानों से खचाखच भरा था और ऊपर से बिजली गुल!'गुज़रा गवाह' और 'लौटा बाराती' दोनों की क्या दशा होती है -ये तो सभी जानते हैं. सो यहाँ भी हर बाराती मौका देख कर इधर-उधर लोट लगाने की फिराक में था.और जो बची घर की घराती महिलाएं थी वो भी उनींदी सी थीं.आलम ये कि हर कोई अस्त-व्यस्त और पस्त! तभी मैंने ध्यान दिया कि हर दो मिनट बाद किसी न किसी के मुहँ से 'महरी' की आवाज लग रही है और जवाब में  'आवत हई',जो  सुन कर ही उसकी मुस्तैदी का एहसास दिलाता था.मै घूंघट के अन्दर सोचती रही कि,हर वक्त भला महरी का क्या
काम?हमारे यहाँ तो महरी सुबह-शाम आकर बर्तन धो कर चली जाती थी
समय के साथ पता चला कि महरी पड़ोस के घर में ही रहती थी .वो एक परित्यक्ता थी और भरी जवानी में ही बेसहारा होकर बगल वाली चाची के घर आई थी तभी से दोनों घरों में काम करते-करते उसका जीवन बीत रहा था. मैंने एक दिन उससे पूछा'तुम्हारा कोई नाम तो होगा' तब बहुत सोच कर वो खिस्स से हंसी और बोली 'उत्लहली'(उतावली)  उत्लहली के कामों की लिस्ट अंतहीन थी.कभी-कभी वो मुझे अल्लादीन के चिराग वाले जिन्न सी लगती -मुहँ से फरमाइश निकली नहीं कि महरी ये जा और वो जा.वह हमें घर बैठे चाट खिलाती,जूस पिलाती,बिजली-पानी न रहने पर कुएँ के ठन्डे पानी से भरी बाल्टियों से आँगन भर देती और कभी कोई सामान खरीदना हो तो आधी दुकान ही घर में सजा देती.
जिस पति ने कभी उसकी सुधि नहीं ली उसके लिए उसे तीज का कठिन व्रत करते देख मैं क्रोध से भर जाती. वो तो अपनी सौत के बेटों के लिए उपहार खरीदती और खुद हमारे पुराने कपड़ों में ही खुश रहती .उसने मेरे सास-श्वसुर की बहुत सेवा की . पापाजी के न रहने पर हमारे घर की आठ सालों तक देखभाल भी की .फिर जब हमने अपना पैतृक मकान बेचा तब वह अपने गाँव चली गयी. इस बात को आज आठ वर्ष बीत चुके हैं .इसे विडंबना कहूँ या जीवन का कटु सत्य कि जो कभी हमारी दिनचर्या का अभिन्न हिस्सा थी,हमारे हर सुख-दुःख की साक्षी बनी, उससे फिर कभी मिलना न हुआ. पता नहीं वो किस हाल में होगी इस पल उत्लहली के बारे में लिखते समय मेरी आँखों में आँसू हैं और मन में यही प्रार्थना कि वो किसी कष्ट में न हो.
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