May 15, 2012

संसद  का साठवां जन्मदिन.......................१३ मई २०१२ ................. टीवी पर सीधा प्रसारण आ रहा था. आम तौर पर खाली-खाली दिखने वाला संसद भवन का सेंट्रल हॉल खचाखच भरा था.उस दोपहर उसी हॉल में चर्चा के दौरान भी बहुत से सांसद नदारद ही थे. पर अभी सब सजे -धजे बैठ कर शास्त्रीय संगीत का आनंद ले रहे थे और शायद मन ही मन रात्रि-भोज के लिए मूड बना रहे थे. तभी एक उदघोषणा के बाद गायिका शुभा मुदगल का आगमन हुआ.वो आयीं ,आराम से गद्दे पर बैठ कर पूरी संसद को आइना दिखा कर चली गयी.उन्होंने शास्त्रीय गायन शैली में दो प्रस्तुतियां दी ,"इतना ऊँचे उठो कि जितना उठा गगन है"(द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी)और "मज़हब कोई ऐसा बनाया जाये जिसमे इंसान को इंसान बनाया जाये"(नीरज)शास्त्रीय शैली में इन गीतों को प्रस्तुत करना एक साहसपूर्ण कदम था, और  इससे उपयुक्त अन्य कोई गीत हमारे माननीयों के लिए हो भी नहीं सकते .शुभा मुदगल वाकई बधाई की पात्र हैं.हम सब तो अपनी-अपनी भड़ास हवा में निकालते रहते हैं. शुभा मुदगल ने उन्हें मिले मौके को व्यर्थ नहीं गंवाया .

May 13, 2012

तूने फूँके प्राण तन-मन में, माँ तुझसे ही है ये जीवन.

तेरी साँसों की लय पर, सीखा मैंने साँसे लेना.
धड़का ये ह्रदय पहले, सुन कर तेरी ही धड़कन.
 
तूने फूँके प्राण तन-मन में ,माँ तुझसे ही है ये जीवन.

तेरे आँचल में ही देखा, पहला सुखद सपन सलोना.
तेरी बाँहों के  झूले में ,मिट  जाती  थी हर  थकन .

तूने फूँके प्राण तन-मन में ,माँ तुझसे ही है ये जीवन .

जीवन-पथ से चुन कर काँटे,सिखलाया सपनों को संजोना.
हर ठोकर पर गोद तुम्हारी,तुमने ही दिखलाया था दर्पण.

तूने फूँके प्राण तन-मन में,माँ तुझसे ही है ये जीवन.

बनाया स्वाभिमानी तुमने,तो तुम्ही से सीखा मैंने झुकना.
देकर संस्कारों की थाती ,बना दिया ये जीवन उपवन.

तूने फूँके प्राण तन-मन में ,माँ तुझसे ही है ये जीवन.

माँ क्या होती है ,ये मैंने माँ बन कर है जाना,
अपने आँचल के फूलोँ पर करती तन-मन-धन और जीवन अर्पण.

तूने फूँके प्राण तन-मन में माँ तुझसे ही है ये जीवन.

May 11, 2012

कल की ब्रेकिंग न्यूज़......"गटर गैस का सांसदों पर हमला!"
 वाह! भाई वाह! ....हम आप तो गली,मोहल्लों,सड़क ,चौराहों पर जब-तब,यहाँ-वहां,गटर गैस की दबंगई से रूबरू होते ही रहते हैं.पर सांसदों की नाक में गटर गैस जाते ही ब्रेकिंग न्यूज़ बन जाती है. वैसे दबंगई से याद आया कि जैसे जहाँ सलमान खान होते हैं वहां कोई टिक नहीं सकता वैसे ही जहाँ गटर गैस होती है वहां भी कोई नहीं रह सकता.चमाचम गाड़ी ,लक-दक पोशाकें ,एसी की ठंडी -ठंडी  हवा .....इसी के आदी  हैं हमारे सांसद ,बेचारे जेब में पड़े रुमाल को तो बाहर  की हवा खाने का मौक़ा ही नहीं मिलता होगा, चलो कम से कम एक दिन नाक पर रखने में उसका होना भी सफल हुआ.पर सोचने वाली बात है कि इतनी कड़ी सुरक्षा के होते गटर गैस संसद में घुसी कैसे?भई बहते पानी और हवा को भी  कभी कोई रोक सका है क्या?और फेंकिये हमारी समस्याओं को गटर में .प्रकृति को जो आप देते हैं वही आपको वापस मिलता है. इसे कहते हैं........."नैसर्गिक न्याय "(natural justice)

May 09, 2012

ये बात पिछले वर्ष मई के महीने की है .........(मैंने ये तभी लिखा था ,पर आप सबके साथ आज अपनी बात साझा कर रही हूँ)टीवी चल रहा था , मै अपने रोज़मर्रा के काम निबटा रही थी. किसी न्यूज़ चैनल पर ख़बरें आ रही थीं. अचानक एक खबर पर कान खड़े हो गए . खाद्य मंत्री संसद में वक्तव्य दे रहे थे ..........."लोग ज्यादा खाने लगे हैं ,इसलिए महंगाई बढ रही है ,लोगों की आमदनी बढ़ गयी है इसलिए महंगाई बढ़ गयी है."आज जब देश का आम आदमी महंगाई की मार से तिलमिलाया घूम रहा है ,तब हमारे देश की संसद में ही ऐसी बेतुकी और बेहूदी दलील दी जा सकती है.लिखने बैठूं तो सुबह से शाम हो जाए और शाम से सुबह.......फिर भी इन माननीयों का महिमा-मंडन ठीक से ना कर पाऊँ . सो अपनी भड़ास चंद छंदों में .......................................
                 "हम तो महंगाई की मार से मरे जाते हैं ,आप कहते हैं कि हम ज्यादा खाते हैं.
                              तो सुनिए हम आपको बताते हैं
                    हम तो हाड़-तोड़ मेहनत से कमाते हैं, जतन से पकाते हैं,
           मिल-जुल कर खाते हैं, फिर भी  कितने बच्चे भूखे ही सो जाते हैं.
              हम तो महंगाई की मार से मरे जाते हैं,आप कहते हैं कि हम ज्यादा खाते हैं.
                            तो सुनिए हम आपको बताते हैं.
             आप हराम का कमाते हैं,लूट-खसोट कर खाते हैं,
     खा-खा कर हमें ही पकाते हैं फिर भी हम आपको बर्दाश्त किये जाते हैं.
       हम तो महंगाई की मार से मरे जाते हैं ,आप कहते हैं क़ि हम ज्यादा खाते हैं.
          तो सुनिए हम आपको बताते हैं.
      बढ़ी हुई कमाई पर हम अपना दिल भी बढ़ाते हैं,पाई-पाई टैक्स की चुकाते हैं.
       बचे हुए में फिर कुछ बचाते हैं ,फिर भी भविष्य की चिंता में घुले जाते हैं.
       हम तो महंगाई की मार से मरे जाते हैं ,आप कहते हैं कि हम ज्यादा खाते हैं.
                 तो सुनिए हम आपको बताते हैं.
             हम जो लें हँस के चुटकी भी ग़र,आप गुस्से से लाल-पीले हुए जाते हैं.
             खुद संसद की गरिमा को रख ताक पर खुद ही उसे गिराते हैं.
              फिर भी सिर तो हम ही शर्म से झुकाते हैं.
        हम तो महंगाई की मार से मरे जाते हैं,आप कहते हैं कि हम ज्यादा खाते हैं.
                        तो सुनिए हम आपको बताते हैं.
आप चुनाव से पहले बरसाती मेंढक की तरह टर्राते हैं,
झूठे वादों से हमें लुभाते हैं,हमारी खुशियों में सेंध लगाते हैं.
            फिर भी हम आपको चेताते हैं कि,संभल जाओ वर्ना अब हम आते हैं.
           हम तो महंगाई क़ी मार से मरे जाते हैं, आप कहते हैं कि हम ज्यादा खाते हैं.

May 01, 2012

                                                 " मन की बात "


"पिछले दिनों घर में पुताई के बाद परदे लगे तो एक खिड़की के परदे बहस का मुद्दा बन गए . हुआ ये कि उस खिड़की के परदों के बीच पहले थोड़ी-थोड़ी जगह रहती थी ,जो अब नहीं थी. मै अड़ी थी कि परदे वही हैं  अब बड़े कैसे हो गए -मुझे नहीं पता. कुछ देर मगज मारने के बाद मैंने सोचा -जहाँ चारों ओर बेपर्दगी की होड़ मची है ,वहां मेरे घर के परदे तो बड़े ही हुए हैं ...मै क्यूँ  परेशान हो रही हूँ . अगली सुबह ध्यान से देखा तो समझ में आया कि  परदों में छल्ले कुछ ज्यादा पड़ गए हैं और उनके फैलने की गुंजाइश कुछ बढ़ गयी है, इसीलिए अब उनके बीच जगह नहीं रह गयी है. इस तरह ये मुद्दा तो ख़त्म हुआ ,पर मेरे सोच-विचार की सुई 'गुंजाइश' पर अटक गयी.सोचने लगी भगवान् ने ह्रदय की संरचना ऐसी बनाई कि वो रक्त के अधिक-कम दवाब को सह सके. उसमे कोई खराबी हो तो डाक्टरों ने उपाय ढूँढ लिया है -एक छल्ला 'गुंजाइश' का (angioplasty/stenting) मगर रिश्तों को निभाने के लिए जो गुंजाइश दिलों में चाहिए उसका क्या? पहले संयुक्त परिवारों में  घर छोटे होते थे ,आमदनी भी कम-कम  होती थी ,पर दिलों में गुंजाइश की कोई कमी नहीं थी.हर कोई एक दूसरे की अच्छाई -बुराई के साथ स्वयं को समायोजित कर ही लेता था. आज बड़ी-बड़ी कोठियां हैं , ऊँचे-ऊँचे ओहदे हैं ,पर दिल में गुंजाइश का टोटा है. अब तो चलती है जोर-आज़माइश, जहाँ जोर नहीं चलता वहीँ हम झुकते हैं, सहते हैं, दबते हैं. मुझे अपनी ही लिखी एक कविता की दो लाइने याद आ रही हैं..................
"यूँ तो बहुत सहते हैं हम दुनिया के सितम , है गुंजाइश अपनों के लिए ही  कम .
                  चुनते सब कुछ नया जीवन में, बस शिकवे ही पुराने ढ़ोते हैं"
         बात छल्लों और परदे से शुरू हुई थी तो, अगर एक ,सिर्फ एक छल्ला 'क्षमा' का हम अपने हृदय में धारण करें तो बहुत सी शिकायतों पर पर्दा पड़ जाएगा ,और उसकी आड़ में कुछ रिश्ते आसानी से निभ जायेंगे."
                                                                                                                         प्रीति  श्रीवास्तव