February 23, 2012

आदरणीय अलका जी की पिन पोस्ट के लिए। दोस्तों ,२०१२ के जनवरी माह के अंत की ये घटना है ,और २३ फरवरी को मैंने ये अपने ब्लॉग पर लिखा था। आज इसे ही शेयर कर रही हूँ। इसी कड़ी में कुछ और ब्लॉग-पोस्ट भी हैं। अगर आप लोग पढ़ना चाहेंगे तो उन्हें भी पोस्ट करूंगी।





" आजकल अखबारों के लखनऊ संस्करण में एक खबर लगातार सुर्ख़ियों में बनी हुई है ..........लखनऊ से सटे रहमानखेडा गाँव में एक बाघ का आना-जाना हो गया है.जंगल से भटक कर ये बाघ  आबादी के निकट कैसे पहुंचा..इसका सीधा उत्तर मनुष्य की प्रकृति के प्रति असंवेदनशीलता में ही छिपा है.इस बारे में बहुत कुछ लिखा -पढ़ा जा चुका है.अब बारी है इसके दुष्परिणामों को भुगतने की.मै बात कर रही थी बाघ की जिसने पिछले डेढ़ महीने से वन-विभाग की नाक में दम कर रखा है,गाँव वाले दहशत में जी रहे हैं वो अलग.वन विभाग रोज़ नई-नई जुगत लगा रहा है पर ये बाघ कुछ ज्यादा ही सयाना है.अब तक सात पड्वे बाघ का निवाला बन चुके हैं. हर बार नया पड़वा(भैंस का बच्चा )बाँधा जाता है बाघ को फंसाने के लिए मगर बाघ हर तरकीब को धता बता कर पड्वे को मार कर चला जाता है.सोचने पर मजबूर हूँ कि मनुष्य और बाघ की इस लुका-छिपी में पड्वे का क्या दोष? यही ना कि वो कमज़ोर,मूक प्राणी है और बंधन में बंधा है. रोज़-रोज़ मिलने वाली दावत बाघ की हिम्मत बढ़ा रही है.शायद बाघ मुंह का स्वाद बदलने की सोचे ...फिर क्या होगा? ये सोचना वन -विभाग के लोगों का सिरदर्द है,मेरा नहीं.अभी मेरे साथ आप भी ज़रा गौर फरमाइए और सोचिये .........ऐसा ही एक मूक पड़वा हम में से अधिकाँश लोगों के भीतर भी तो छिपा है,जिसे हम कभी 'मजबूरी',कभी 'संस्कारों' की दुहाई, कभी  'स्वभावगत आदतों' के बंधन  में बाँध कर आगे कर देते हैं शिकार होने के लिए 'अन्याय ',असंवेदनशीलता',और 'अमानवीयता' के बाघों का.तो इस बार घायल पड्वे को  सहलाते और ज़ख्मों पर मरहम रखते समय संकल्प लीजिये क़ि अगली बार पड़वा नहीं आप   दृढ़ता और हिम्मत से बाघ का सामना करेंगे ,भीतर का पड़वा तो फिर भी  घायल होगा - इसमें कोई   संदेह नहीं,पर आपकी  दृढ़ता और हिम्मत बाघ की उद्दंडता पर कुछ तो लगाम कसेगी ही...... बात कुछ ज्यादा ही तल्ख़ हो गयी शायद! क्या करूं 'मन की बात ' है.
चलते-चलते एक सुझाव ....रहमानखेडा में घूम रहे बाघ को लोकसभा का रास्ता दिखाना चाहिए  ,तब गाँव-वासियों की नहीं सांसदों की जान सांसत में होगी और इस बाघ को पड़वा बनने पर मजबूर होना ही पड़ेगा.देखना दिलचस्प होगा कि बाघ-बहादुर पर कौन सी 'धारा' में मुकदमा चलेगा................."

February 18, 2012

गुलाब दिवस  की शाम को अदले-बदले गए गुलाब के फूल अब तक तो शर्तिया मुरझा गए होंगे, लेकिन उस शाम लूटा और  लुटाया गया प्यार अभी भी दिलों में  हिलोरें मार रहा होगा..........इसी उम्मीद के साथ के , आज की शुरुआत....................हाँ तो उस दिन  कितने ही दिलों में प्यार के बीज पड़े होंगे, बहुतों का प्यार परवान चढ़ा होगा, कई जोड़े प्यार की चरम गति को प्राप्त हुए होंगे (उस दिन शादी की  लगन अच्छी थी.) दरअसल उस शाम जब मैं सब्जी लेने निकली तब चौराहे पर फ्लोरिस्ट की दुकान के आगे लड़के लड़कियों की भीड़ को देख कर मुझे याद आया कि आज तो रोज़ डे  है.मन में कसक भी हुई.....हमारे जमाने में क्यों नहीं  था .हम तो स्वतंत्रता -दिवस ,बाल-दिवस और शहीद-दिवस मना कर ही  बड़े हो गए. फिर लगा प्यार के इज़हार  के लिए किसी ख़ास दिन का इंतजार क्यों?प्यार तो एक ऐसा खूबसूरत एहसास है जो दिल को छूते ही नज़रों से बयान हो जाता है.फिर प्यार  करने  से कहीं ज्यादा मुश्किल है प्यार निभाना..............मगर इस बारे में फिर कभी......
आज  'प्यार करो फुरसत करो' की तर्ज़ पर गली, नुक्कड़, चौराहों ,पार्कों में दिखते जोड़ों  के लिए चंद पंक्तियाँ ..................   ."-प्यार प्यार-प्यार जल्दी से कर लो नज़रें चार
                       कह लो सुन लो दिल का हाल, क्या हो कल किसका ऐतबार.
                      प्यार-प्यार  प्यार जल्दी कर लो नज़रें चार.
                  कल थी नीता  ,आज सुनीता, मीता  बैठी कल को  तैयार.
                  प्यार-प्यार-प्यार  जल्दी से कर लो नज़रें चार.
                 जाना है कहाँ,जायेंगे कहाँ....क्या खोया और क्या पाया सोचेंगे अगली बार.
                 प्यार-प्यार-प्यार  जल्दी से कर लो नज़रें चार"
चलते-चलते ..........क्योंकि बात गुलाब के फूल से  शुरू हुई थी,तो कुछ गुलाब की पंखुड़ियां पुरानी डायरी  या किताबों के पन्नों में भी होंगी .......प्यार  के अनछुए ,अनकहे और अनसुने एहसास को संजोए हुए.प्यार के इस अनोखे ज़ज्बे को मेरा सलाम!

 

February 14, 2012

ख़ुशी-ख़ुशी घर से बाज़ार जाने के लिए निकली ही थी कि,सड़क पर पानी भरा देख कर ख़ुशी काफूर हो गयी.आखिर ये ख़ुशी इतनी क्षणिक क्यों होती है?पर ये तो सच है कि अगर एक पल के लिए भी मन खुश हो जाए तो जीवन में कई सारे क्षण जुड़ जाते हैं.किसकी ख़ुशी किसमे है सोचा तो लगा .........................
दो महीने की गुनगुन की ख़ुशी........माँ के आँचल में.चार साल के वरुण की ख़ुशी........पापा की ऊँगली पकड़ कर चलने में.आठ साल के पप्पू की ख़ुशी..........चुपके से पापा का razor गाल पर चलाने में.बारह साल की महक की ख़ुशी................मम्मी की नक़ल करने में.सोलह के असलम की ख़ुशी...............गर्ल फ्रेंड की मुठ्ठी में.पच्चीस की सुजाता की ख़ुशी milkmaid के डिब्बे की तलहटी में छिपी है ,जो उसे डिब्बा खाली करके ही मिलेगी अब इसे मीठा खाने का बहाना मत कहियेगा ,उनतीस के नीरज की ख़ुशी........नई-नई बीवी के साथ खाना पकाने में.उनतालीस के अनिल की ख़ुशी................बीवी के मायके जाने में.उनचास के चढ्ढा जी की ख़ुशी......चुपके से बेटे का मोबाइल फ़ोन देखने में..............इत्यादि-इत्यादि....मगर सत्तर साल का होते ही सबकी ख़ुशी प्यार के दो बोल में ही छिपी होती है, पर ये दो बोल किस्मत वालों को ही नसीब होते हैं. उफ़! आज कोई गंभीर  बात नहीं .......देखो अभी-अभी मैंने गर्दन घुमा कर काम वाली बाई को आवाज लगा कर पूछा " अर्चना  तेरी ख़ुशी कहाँ है?" जवाब मिला........"अरे भाभी खुसी इहाँ कहाँ उई तो अपनी नानी घरे गयी है."और आज जो मै ये लिखने बैठी  हूँ उसकी प्रेरणा एक phone-call है .सुबह-सुबह पीछे वाली भाभी जी का फ़ोन आया-" हाय  प्रीती आज मुझे इतनी ख़ुशी मिली इतनी ख़ुशी मिली क़ि पूछो मत "मैंने पूछा -"कहाँ भई कहाँ?"उधर से आवाज आई ......drawing room में कारपेट के नीचे .........दरअसल उन्हें वहां अपनी खोई हुई अंगूठी मिल गयी थी. ख़ुशी ऐसी ही है इसे पाना जितना सरल है उतना ही कठिन भी.




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February 11, 2012

       मेरे कुछ ब्लॉग पोस्ट पढने के बाद मेरे बेटे ने कहा
'अच्छा लिखा  है पर ज्यादा कठिन हिंदी मत लिखना नहीं तो सब भाग जायेंगे" उसका ये कहना कहीं मेरे हिंदी प्रेम को आहत कर गया.हालांकि उसकी ऐसी मंशा नहीं थी.मेरा ये मानना है कि कोई भी लेखक या लेखिका लिखते समय भाषा की कठिनता या सरलता में नहीं फंसता, उसकी अभिव्यक्ति (expression) को जिधर प्रवाह (flow) मिलता है वो उधर ही मुड़ जाता है.मै खुद अंग्रेजी भाषा की क़द्र करती हूँ और ठीक-ठाक पढ़-लिख भी लेती हूँ.और मुझे ये स्वीकार करने में कोई गुरेज़ नहीं है कि अंग्रेजी उपन्यास पढ़ते समय मैं dictionary साथ रखती हूँ. ये विडंबना (irony) ही है कि, कठिन अंग्रेजी जानना और कठिन हिंदी ना जानना एक साथ गर्व का विषय बन गए हैं.गलती आज की पीढ़ी की भी नहीं है उन्हें अंग्रेजी माध्यम तो हमने ही दिया है. फिर भी आज चंद पंक्तियाँ अंग्रेजीदां लोगों के लिए...........................................


"हिन्ददेश के वासियों हिंदी से मुँह  मत  मोड़ो,

माना कि अंग्रेजी की दुनिया है दीवानी ,
अंग्रेजी में ही सोचते हैं अब सारे  ज्ञानी 
पर पिछड़ेपन का ठीकरा हिंदी के सिर  मत फोड़ो.

हिन्द देश के वासियो हिंदी से मुँह  मत मोड़ो 

बघारो इंग्लिश -विंग्लिश जम  कर ,
मत आँको  निज-भाषा को भी कमतर ,
हिंगलिश के चक्कर में हिंदी की टाँग मत तोड़ो 

हिन्ददेश के वासियों हिंदी से मुँह  मत मोड़ो 

खाओ इंग्लिश ,पियो इंग्लिश ,
सुन लो मेरी बस इक यही गुज़ारिश ,
अंग्रेजी की दौड़ में हिंदी को पीछे मत छोड़ो 

हिन्द देश के वासियों हिंदी से मुँह  मत मोड़ो 

यूके हो या यूएस बोलो हर लहज़े की अंग्रेजी 
निज भाषा से प्यार जताने में भी करो ना  कोई गुरेज़ी 
रहो कहीं भी दुनिया में हिंदी से पल्ला मत झाड़ो  

हिन्द देश के वासियों हिंदी से मुँह  मत मोड़ो 

पढ़ो शेक्सपिअर ,काफ़्का और पाओलो कोलो 
महादेवी ,प्रेमचंद ,निराला ,दिनकर को भी ना भूलो 
राष्ट्र भाषा है राष्ट्र गौरव ,इससे तुम नाता जोड़ो 

हिन्द देश के वासियों हिंदी से मुँह  मत मोड़ो "

February 10, 2012

बचपन में घर के आँगन या छत पर लेटे-लेटे तारों से भरे आकाश को देखना मेरा प्रिय शगल था.अक्सर मै  मन में जो भी शब्द आता उसे तारों को जोड़-जोड़ कर बनाती और फिर आसमान की स्लेट पर उसे पढ़ती .पर वो मेरा लिखा मेरे लिए ही होता. कोई और भला मेरी नज़र से देखता भी कैसे.....जरा सी नज़र चूकी और शब्द गायब हो जाता और मैं फिर से नया शब्द बनाने में जुट जाती. इसी में कब नींद आ जाती पता ही न चलता.आज के बच्चों के लिए खुला आसमान कहाँ है?शायद अब घरों की छतों से तारे भी उतने चमकीले नहीं दिखते.मैं भी सोचूं तो लगता है एक अरसा बीत गया तारों से रूबरू हुए. आज जब मैं पहली बार ब्लॉग लिखने बैठी हूँ तो ना जाने क्यों वही बचपन वाला रोमांच हो रहा है ........लग रहा है ये तो ऐसा आसमान है जहाँ मेरा लिखा कोई भी पढ़ सकता है. कैसा लिखूंगी ,कितना लिखूंगी ......ये तो वक्त  ही बतायेगा.पर जब भी लिखूंगी मन की बात ही जगजाहिर होगी.  आज बस एक कविता...........................................

"बचपन की शीतल चांदनी रातों में ,अनगढ़ खेल और बातों-बातों में.
जब-जब टूटा तारा कोई गगन में,तब-तब पाला था इक सपना मन में.
उम्र की जोड़ में,दुनिया की होड़ में,
जीवन की आपाधापी और दौड़ में,
कहाँ मिली फुरसत और कब ये सोचा क़ि सपने भी कुछ कहते हैं कुलबुलाते और सहते हैं.
सपने कभी नहीं मरते,हम ही उन्हें भूल भौतिकता में खोते हैं.
जीवन की  हर विफलता में,मन की  हर दुर्बलता में वे पलते और जीवित रहते हैं."