August 30, 2013

 अजय की पत्नी ,रोमा  के घर में आज किटी -पार्टी है ,सुबह से ही वह तैयारियों में व्यस्त है.…………घर भी सजाना है ,किचन में भी काम है। अजय को आज सुबह का नाश्ता और दोपहर का लंच ऑफिस में करने का फरमान सुना दिया गया है। रोमा ने एक बड़ा सा पीतल का लैंप लाकर अजय के सामने रखदिया …. "प्लीज अजय इसे  ज़रा चमका दो ना, ड्राइंग रूम में रखूंगी,नीचे बेसमेंट में पड़ा था ,कितना सुन्दर एंटीक पीस है ,सब जल जाएँगी देख कर। अजय ने गहरी साँस  भर कर ,बेमन से लैंप को  ब्रासो से चमकाना शुरू किया ही था कि,
 लैंप में से धुँआ निकला और एक बड़ा सा जिन्नी सामने आकर खड़ा हो गया , उसने कहा "मेरे आका ,जल्दी से तीन इच्छाएँ  बताओ ,मैं अभी पूरी करूँगा ……… अजय ने खुद को चिकोटी काटी और जब उसे ये लगा कि ,ये सच में जिन्नी ही  है तब वह बोला  "बस तीन ? यहाँ तो इच्छाओं का अम्बार लगा है ,तीन कैसे सोचूँ ? अरे
जिन्नी महाराज ये कलयुग है तीन की जगह तीस पूछो तो कुछ बात बने " जिन्नी ने गर्दन हिलाई ,"ना  जी ना  मेरे आका ,तीन से आगे की औकात नहीं है मेरी ,वो भी जल्दी बताओ नहीं तो मैं वापस लैंप में चला। ।" "नहीं -नहीं  रुको , क्या माँगू……क्या माँगूं  ……. हम्म ……  अच्छा  चलो ,पहली इच्छा  …… "आज जो भी झूठ बोले उसका मुँह  काला  हो जाए " हो जाएगा मेरे आका ,दूसरी इच्छा ………"आज जो भी चोरी करे उसके दुम  निकल आये ""हो जायेगा मेरे आका   "अब तीसरी इच्छा बताईये …। "आज मेरी पत्नी झूठ ना  बोले,और मेरे पर्स से चोरी भी ना करे " ,जिन्नी ने अपना सिर  खुजाया ,"ये तो जरा मुश्किल है फिर भी आपके लिए करूँगा  मेरे आका।
                       अजय टीवी के सामने बैठा हँस -हँस  कर लोट-पोट हो रहा है , संसद में हर पार्टी का नेता मुँह  काला किये बैठा है ,बहुतों की दुम  भी निकल आई है………हर चैनल पर ब्रेकिंग न्यूज़ ………ये कैसी आपदा…….  देश भर में  काले मुँह  वाले और दुम  वाले  बढ़ने की खबर आती ही जा रही है ,अजय को बड़ा मज़ा आ रहा है ,वह जोर-जोर से ठहाके लगा रहा है ……हा!हा!हा …… रोमा ने झकझोर कर अजय को जगाया "ये क्या सुबह-सुबह क्या ठहाके लगा रहे हो ,उठो आज कितने काम हैं ,मेरी किटी -पार्टी है। " अजय उठ कर एकदम खड़ा हुआ और रोमा से बोला चलो बेसमेंट से वो पुराना लैंप उठा कर लाते हैं ,उसे चमका कर ड्राइंग रूम में रखना ,सब जल जायेंगे देख कर ,कितना सुन्दर एंटीक पीस है। " "क्या तुम भी …… कबाड़ चीज़ों के चक्कर में रहते हो ,मैंने उसे कबाड़ी को बेच दिया "रोमा को देख कर अजय ने मन ही मन कहा 'शुक्र करो मेरी तीसरी इच्छा ने तुम्हें बचा लिया ,वर्ना………………. हा! हा! हा! "अजय फिर चादर तान कर सो गया। 

August 29, 2013

आज सुबह से दोपहर तक इंतज़ार था लाइट आने का ,आई भी तो बार-बार जाने के लिए,खैर मेरा किस्सा-ए -इंतज़ार कुछ यूँ  है ……………….
 ये उन दिनों की बात है जब मॉल ,मोबाइल और मल्टीप्लेक्स सिनेमाघर नहीं थे ,ये बात है सन १९७४ की ,तब सिनेमा जाने का प्रोग्राम बनना बड़ी बात हुआ करती थी। मुझे अच्छी तरह याद है ,वो एक छुट्टी का दिन था
हम चारों भाई-बहनों ने पापा को घेर-घार कर मूवी जाने का प्रोग्राम बना ही लिया। ये तय हुआ कि  ,हम १२ से ३ का शो जायेंगे ,माँ ने जल्दी-जल्दी खाने की व्यवस्था की ,साथ ले जाने के लिए भी मठरी -बिस्कुट रख लिए गए ,हम सब नहा  -धो कर तैयार ,भोजन भी हो गया। हमें ११.३० पर निकलना था और ठीक ११. १५ पर पापा के बहुत ख़ास मित्र पधार गए ,(तब लोग बिना पूर्व सूचना के ही आते थे. )अब क्या हो? पंद्रह मिनट में तो वे जाने वाले थे नहीं, पापा ने अन्दर आकर कहा 'चलो कोई बात नहीं हम ३ से ६ वाला शो चलेंगे ,तुम सब अपना होम-वर्क कर लो ,चलेंगे पक्का चलेंगे ,हमारे पास भी बात मानने के सिवा कोई चारा न था। खैर…जब २ बज गए और अंकल नहीं गए तब हमारी बेचैनी बढ़ने लगी ,माँ भी परेशान…फिर हम सबने एक प्लान बनाया औरमै  और मेरी छोटी बहन तैयार होकर जूते-मोज़े पहन कर ड्राइंग-रूम में जाकर चहल -कदमी करने लगे।
थोड़ी देर बाद पापा को हँसी  आने लगी ,अंकल जी भी कभी हमें देखते तो कभी पापा को। आखिर पापा बोल पड़े दरअसल आज बच्चों को पिक्चर दिखाने ले जाना था,तुम १५ मिनट देर से आते तो ,हम लोग निकल जाते।
अंकल खिसियानी सी हँसी  हँस  कर बोले तो पहले बताते मैं तो घर में झगडा कर के आया हूँ टाइम पास कर रहा हूँ ,और १५ मिनट बैठता तो ये शो भी छूट जाता। वो बेचारे तुरंत चले गए ,हम लोग भी जल्दी-जल्दी घर से निकले।कौन सी मूवी देखी  और कैसी लगी -ये तो याद नहीं पर जाने के लिए जो इंतज़ार किया वो याद रह गया। आज भी हम लोग उस किस्से को याद करके हँस  लेते हैं।  

August 28, 2013

लघु- कथा-"पुनर्मिलन "-----विनय बड़ी सी आलिशान कोठी के सामने खड़ा था , नेमप्लेट पर सुनहरे अक्षरों में "प्रवीण वर्मा " पढ़ कर विनय की आँखों में चमक आ गई.…………… प्रवीण उसका बचपन का दोस्त था ,साथ-साथ खेले ,एक ही स्कूल में गए और बचपन के कितने ही सुनहरे पलों को संग -संग जिया। प्रवीण के पिता भी सरकारी अफसर थे ,विनय साधारण घर से था ,पर ये अंतर कभी उनकी दोस्ती के आड़े नहीं आया। प्रवीण की सादगी और सरलता से मुग्ध विनय की माँ कहती -'ये तो कृष्ण -सुदामा की जोड़ी है। ' वे आठवीं कक्षा में थे ,जब प्रवीण के पिता का तबादला दूसरे  शहर में हो गया। उसके बाद कभी मिलना नहीं हुआ। विनय को पता चला था कि , प्रवीण का चयन प्रशासनिक -सेवा में हो गया है ,पर जीवन की आपा -धापी और जिम्मेदारियों ने कभी मौका ही नहीं दिया दोस्त से मिलने का , पिछले दिनों अखबार में एक खबर के माध्यम से पता चला कि,प्रवीण दिल्ली में ही उच्च -पद पर आसीन  है ,विनय भी बेटे के पास दिल्ली में ही था………. सोचा अचानक पहुँच कर  प्रवीण को चकित कर दूँगा। दरबान की आवाज़ से विनय की तन्द्रा टूटी ,"किससे  मिलना  है साहब?"
प्रवीण ने एक कागज़ पर अपना नाम लिख कर दिया ,आधे घंटे के बाद विनय को ड्राइंग-रूम में बुलाया गया ,और कुछ देर इंतज़ार के बाद प्रवीण आया तो दस मिनट औपचारिक बात के बाद प्रवीण ने कहा "अच्छा  दोस्त मुझे तो कहीं निकलना है , तुम्हारा जो काम हो उसके बारे में पूरा ब्यौरा मेरे सेक्रेटरी को दे देना ,मैं देख कर बताता हूँ। " विनय के उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ही प्रवीण चला गया। टैक्सी में घर वापस लौटते समय विनय बचपन की यादों में ही गुम  रहा  ……. टैक्सी से उतरा तो टैक्सी-ड्राईवर ने सीट पर पड़े पैकेट की याद दिलाई "साहब अपना सामान ले लीजिये। " विनय ने कहा "दोस्त ये तुम रखो इसमें घर के बने अचार और लड्डू हैं,बच्चों को खिलाना। " घर में प्रवेश करते समय विनय सोच रहा था ,'काश ! उस रोज़ अखबार न पढ़ा होता तो आज ये पुनर्मिलन न होता। '

August 26, 2013

एक बार फिर से तुम आओ हे! कान्हा ,
बसे उर-आनंद वो बंसी बजाओ हे! कान्हा।

है चहुँ ओर पाप का वमन ,कर रहा असत्य, सत्य का शमन ,
करके दमन पापियों का ,कालिया के जैसे सबक तुम सिखाना।

एक बार फिर से तुम आओ हे! कान्हा ………

छल और कपट ये कैसी अगन , बसे हर मोड़ पर कंस और दुशासन।
करके  पतन दुसाहसियों  का ,हर द्रौपदी का चीर तुम बढ़ाना।

एक बार फिर से तुम आओ हे! कान्हा ………….

पाकर भी  ये दुर्लभ जीवन ,भटक रहा मानव लिए व्याकुल मन।
खोले थे जिसने चक्षु अर्जुन के ,गीता का वही  ज्ञान तुम सुनाना।

एक बार फिर से तुम आओ हे! कान्हा,
बसे उर-आनंद वो बंसी बजाओ हे! कान्हा।

August 23, 2013

एक 'चुप ' में  हैं दबे बोल कई अनकहे।
ज़रा सा रुको, मन के घाव हैं अभी नए ,
अभी ही धडकनों ने कई घात हैं सहे।

एक 'चुप' में हैं दबे बोल कई अनकहे।
तोड़ो न सहज-सम्बंधों के तार, जीवन -रागिनी लिए,
अवलंबन  हैं ये ह्रदय के,नेह-संजीवनी गहे।

एक 'चुप' में हैं दबे बोल कई अनकहे।
मत करो इतना  विवश कि ,ये बाँध टूट जाए ,
भावनाओं  के सैलाब में फिर क्या-क्या न बहे।

August 18, 2013

भीतर मन में बेचैनी है, बाहर बड़े झमेले हैं।
छुद्र स्वार्थ भरे जग में ,जीवन के सुख-दुःख झेले हैं।
अब कैसे छूटेगा ये ,जन्म-मरण का बंधन शाश्वत ,
हर पल मन अब तडपे है ,मुक्ति की राह टटोले है। 

August 12, 2013

              " एक सपना"


"कल रात मैंने भी एक सपना देखा……….
मै सपने में सपने बुन रही हूँ ,खुशियों के फूल चुन रही हूँ।

आज बेटी ने घर आकर बोला ,माँ आज किसी ने मुझे नज़रों से नहीं तोला,
पति ने भी उसमे जोड़ा ,आज किसी ने यातायात नियम नहीं तोडा।
कामवाली भी खिली-खिली है ,आज सब्जी के साथ धनिया मुफ्त में मिली है।

मैं सपने में सपने बुन रही हूँ ,खुशियों के फूल चुन रही हूँ।

टीवी पर ख़बरें आ रही हैं ,सभी पार्टियाँ सुर में सुर मिला रही हैं ,
आज किसी अबला की अस्मत नहीं लुटी ,ना ही जंतर-मंतर पर भीड़ जुटी।
बात हो  रही है ,सैनिकों के मान की ,नारी  के सम्मान की और चर्चा है प्रगति के सोपान की।

मैं सपने में सपने बुन रही हूँ ,खुशियों के फूल चुन रही हूँ।

लोगों की सोच रही है बदल ,अब केवल धन ही नहीं है प्रबल ,
'सत्य' की हो रही है अब कद्र ,नेता सभी हो गए हैं अब भद्र।
उदय हो रहा है ,नए कल का सूरज , रंग ले ही आया हम सबका धीरज।

मैं सपने में सपने बुन रही हूँ ,खुशियों के फूल चुन रही हूँ।

काश ! कि , ये सपना कभी न टूटता……….

मैं जागी आँखों से'सच' का सामना कर रही हूँ ,बेटी की भरी आँखें,पति की बेवज़ह  झुंझलाहट,
नेताओं का दंगल ,सैनिकों का अपमान ,'दामिनी ' का लुटता सम्मान ,हर पल आतंक की आहट।
पर मैंने भी छोड़ी नहीं है आस ,है मन में यही विश्वास ,हम जिन्हें संजोते हैं ,सपने भी वही  सच होते है।"


                                                                                                          प्रीति श्रीवास्तव 
'

August 08, 2013

 लघु कथा -"नैसर्गिक न्याय"

  आलोक को आज प्रमोशन मिला है, पिछले दो साल में ये उसका तीसरा प्रमोशन है और क्यों ना हो .... इन दो सालों में आलोक ने अपनी दवा  कंपनी के लिए जी-तोड़ मेहनत  की है। एक छोटी सी कंपनी को प्रादेशिक स्तर  की प्रतिष्ठित कंपनी बनाने में आलोक का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। बॉस मि. मेहता आलोक से खासे प्रसन्न हैं। आज ऑफिस में भी पार्टी थी , आलोक ने घर आते समय बेटे अपूर्व के लिए कुछ कपडे और खिलौने लिए है, कितने दिन हो गए उसे घर में पत्नी और बेटे के साथ समय बिताये हुए ,इन सालों में वो बस मशीन की तरह काम में ही जुटा  रहा। अब कुछ समय फुरसत से घर में भी व्यतीत करूँगा .......  यही सोचते हुए उसने प्रसन्न मन से घर की ओर गाड़ी मोड़ ली। गली के मोड़ पर ही किसी ने बताया ,पत्नी बेटे अपूर्व को लेकर अस्पताल में है ,अस्पताल पहुँच कर पता चला ..... आज  अपूर्व स्कूल की पिकनिक पर गया था ,शहर से २५ किलोमीटर दूर , वहाँ  फिसल कर गिरने के कारण उसके सिर  में चोट लग गयी और स्थानीय डॉक्टर ने उसे कुछ दवा  दी थी ,उसी दवा  के रिएक्शन से अपूर्व की हालत बिगड़ गयी ,आलोक दौड़ कर ICU में पहुंचा ,डॉक्टर ने उसे तसल्ली दी ,अब अपूर्व बेहतर है पर नकली दवा  की वज़ह से ही अपूर्व की ये हालत हुई है। आलोक सन्न रह गया ,पिछले दो सालो में उसने कितनी  नकली दवा छोटे कस्बों और गाँवों  में सप्लाई की है ....... आज अगर अपूर्व को कुछ हो जाता तो? आलोक ने जेब से प्रमोशन लैटर निकाल कर फाड़ दिया और अपूर्व का माथा चूम लिया ......... 

August 06, 2013

कविता .......

       आजकल मेरे घर के सामने एक वृक्ष ,दिन दूना ,रात चौगुना बढ़ रहा है,
        इस जुलाई पानी न के बराबर बरसा ,फिर भी वृक्ष आकाश चढ़ रहा है।
     
        एक दिन मैंने उसके पास जाकर ,फुसफुसा कर पूछा,
        महाशय ,इस तरक्की का राज़ बताएँगे ,हम भी अपने बगीचे में आजमाएंगे।
     
        वृक्ष गर्व से तन,बेपरवाही से अपनी टहनियों को लचका कर बोला ,
        ये राज़ बड़ा ख़ास है,इसे बताने का अधिकार नहीं हमारे पास है।
     
        बस !इतना जान लीजिये ,ये सरकारी 'ज़मीन' है ,
         मतलब? मतलब बड़ा ही महीन है ...............

         सरकारी ज़मीनों पर मेरे जैसे कई पनप रहे हैं ,
         पर, मेरे बगीचे में तो वृक्ष बिन पानी कलप  रहे हैं।

        वृक्ष ने विद्रूपता भरी मुस्कान के साथ मुँह खोला,
        और अबकी सब सच-सच ही बोला............

       महोदया  मैं हूँ वृक्ष 'भ्रष्टाचार ' का भरपूर पोषित ,
       पनपता हूँ मैं ,जब जनता होती है शोषित।

      मुझे चाहिए बेशर्मों  की आँख का पानी ,बेईमानी की बहार,
      मेरे फल खाते देश के नेता,देश के अफसर,देश के पालनहार।

      मैंने दृढ़ता से कहा -मैं तुझे सुखाऊँगी,
      अपने घर के सामने से हटाऊँगी ............

     वृक्ष हुँकार के साथ झूम कर  लरज़ा ,
     थोड़ा  और तन कर , मुझ पर गरजा ..............

     मेरे रौब-दाब ,दबंगई की एक ही शाख काफी है तुझे दबाने के लिए ,
     मैंने भी शालीनता से कहा ,'शर्म 'के पानी की एक बौछार  ही काफी है तेरे मुरझाने के लिए।

     
   
   

       
 .