December 11, 2012

आज लगभग तीन महीने  बाद कुछ लिखने  बैठी हूँ ..इस बीच कुछ लिखने का मन नहीं हुआ -ऐसा तो नहीं ,हाँ कुछ लिखने को नहीं था -ऐसा भी नहीं,फिर..............................कई  बार उठते -बैठते ,सोते-जागते,घर के काम निपटाते ,या यूँही सड़क पर आते-जाते ,बहुत सी बातें मन को मथती हैं,मन को छूती हैं,कभी मन को खुश करती हैं,तो कभी दुखी।.पर हर बात को शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता, या ये कहें कि ,शब्द ही नहीं मिलते .भावनाओं का बवंडर चुप्पी के गहन कूप में समाता जाता है, पर शब्दों की गाँठ खुलती ही नहीं। शब्दों की यही बेरुखी ,किसी भी लेखक या लेखिका की सबसे बड़ी त्रासदी है।मै  भी इससे अछूती नहीं हूँ।
                  आज 'मन'  और 'मौन' पर ही कुछ.......................................
                      

            "खो गए हैं शब्द सब,अब मौन ही है मुखर .
         मन पर हैं परतें बातों की,चुभते शूलों ,सुहानी बरसातों की।
     निःशब्द ही रह कर ,चढ़ा  भावनाओं के शिखर,
                                            अब मौन ही है मुखर .
           मन भी है घटता-बढ़ता , चन्द्रकला की साक्षी देता ,
            बंद कपाटों के भीतर , ओढ़े 'चुप' का कलेवर ,
                                                 अब मौन ही है मुखर।
            मन कहाँ ,कभी ठहरता ,बन पवन-गात सा बहता .
             अंतस में उतर कर , जलाये आशा-दीप प्रखर ,
                                            अब मौन ही है मुखर .
            खो गए हैं शब्द सब ,अब मौन ही है मुखर।"