July 05, 2016

हाँ ! इरफाना  रूही ही था उसका नाम ,वो कक्षा 8 में मेरी सबसे अच्छी दोस्त थी। मिर्ज़ापुर का बाल -भारती स्कूल  ......... खूब बातें करते थे हम। वो कभी सिनेमा हॉल नहीं गई थी ,तो उसकी सबसे ज्यादा दिलचस्पी मुझसे फिल्मों की कहानी सुनने में ही रहती थी। तब टीवी तो था नहीं। मैं  फ्री पीरियड में उसे देखी हुई पिक्चर की कहानी सुनाती। पर हम भाई-बहनों को तो हमारे माता-पिता "सम्पूर्ण रामायण ","सती अनसुइया ","सती सावित्री ","वीर हनुमान"या फिर देशभक्ति की फिल्में ही ज्यादा दिखाते थे। वैसे "बॉबी "और "शोले " भी दिखाई थी ,पर ऐसी फिल्में कम ही देख पाते थे हम। बहरहाल !मैंने इरफाना  को "सम्पूर्ण रामायण "की कहानी भी सुनाई थी ,जिसे उसने बड़े चाव से सुना था। एक बार ईद के मौके पर मैं  घर में पूछ कर उसके घर भी गई थी। उस रोज़ जब मैंने उसकी दादी को बताया कि ,मैं  रोज़ इरफाना  का टिफिन शेयर करती हूँ,तब उन्होंने मुझसे पूछा था कि , तुम्हारी अम्मा को ये बात पता है ? मैंने क्या जवाब दिया ये तो मुझे याद नहीं परन्तु सोचा  तो तब भी यही होगा कि ,इस बात का  मेरी अम्मा से क्या लेना -देना ?इरफाना  फिल्में नहीं देखती थी ,अपनी गली में दाखिल होते ही ग्यारह साल की इरफाना  अपना सिर ढक  लेती थी और उसे   घर से स्कूल और  स्कूल से घर आने-जाने के सिवा कहीं आने-जाने की छूट नहीं थी। मुझे आज भी याद है एक -दो बार उसने मुझसे कहा था कि , काश!वो मुस्लिम ना होती। वो तो इरफाना  का बाल-मन था। आज वो भी  मेरी तरह युवा बच्चों की माँ  होगी।  आज जब दुनिया भर में इस्लाम की आड़ में जो कुछ हो रहा है इसे लेकर बहस छिड़ी हुई है ,हम बहुत कुछ देख ,सुन और पढ़ रहे हैं ,और हमारे मन में कई द्वन्द पल रहे हैं ,तब इरफाना  के बाल-मन की वो ईच्छा  क्या रूप ले चुकी है ,मैं  ये जानना चाहती हूँ। मुझे नहीं पता मैं  उससे कभी मिलूँगी  या नहीं। पर ये तो सच है कि ,हिन्दू होना और मुस्लिम होना दो अलग बातें हैं ये सबसे पहले उसी ने मुझे बताया था। जाते- जाते बता दूँ कि ,उस ईद मैंने इरफाना  के घर चार-पाँच  तरह की सेवइयाँ  खाई थीं। आज भी  ईद है तो सबको ईद मुबारक!