December 11, 2012

आज लगभग तीन महीने  बाद कुछ लिखने  बैठी हूँ ..इस बीच कुछ लिखने का मन नहीं हुआ -ऐसा तो नहीं ,हाँ कुछ लिखने को नहीं था -ऐसा भी नहीं,फिर..............................कई  बार उठते -बैठते ,सोते-जागते,घर के काम निपटाते ,या यूँही सड़क पर आते-जाते ,बहुत सी बातें मन को मथती हैं,मन को छूती हैं,कभी मन को खुश करती हैं,तो कभी दुखी।.पर हर बात को शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता, या ये कहें कि ,शब्द ही नहीं मिलते .भावनाओं का बवंडर चुप्पी के गहन कूप में समाता जाता है, पर शब्दों की गाँठ खुलती ही नहीं। शब्दों की यही बेरुखी ,किसी भी लेखक या लेखिका की सबसे बड़ी त्रासदी है।मै  भी इससे अछूती नहीं हूँ।
                  आज 'मन'  और 'मौन' पर ही कुछ.......................................
                      

            "खो गए हैं शब्द सब,अब मौन ही है मुखर .
         मन पर हैं परतें बातों की,चुभते शूलों ,सुहानी बरसातों की।
     निःशब्द ही रह कर ,चढ़ा  भावनाओं के शिखर,
                                            अब मौन ही है मुखर .
           मन भी है घटता-बढ़ता , चन्द्रकला की साक्षी देता ,
            बंद कपाटों के भीतर , ओढ़े 'चुप' का कलेवर ,
                                                 अब मौन ही है मुखर।
            मन कहाँ ,कभी ठहरता ,बन पवन-गात सा बहता .
             अंतस में उतर कर , जलाये आशा-दीप प्रखर ,
                                            अब मौन ही है मुखर .
            खो गए हैं शब्द सब ,अब मौन ही है मुखर।"  

September 05, 2012

आज सुबह सो कर उठी तो किसी दूसरी बात के संदर्भ में याद आया कि, आज पांच सितम्बर है, मन में कोई और विचार आता ,इससे पहले एकदम ध्यान में आया कि, आज तो शिक्षक दिवस भी है।वैसे तो हर साल ही आता है ,पर इस बार न जाने क्यूँ मन बचपन से बड़े होने तक अपने सारे  शिक्षकों की ओर मुड़ गया . फिर क्या था मै  रसोई में काम करती गयी और पुरानी  यादों में खोती  गयी।अब दोपहर को यादों का पिटारा खोलने बैठी हूँ तो सबसे पहले बारी Miss James की जो class fifth में हमारी क्लास टीचर थीं .वो मुझे बहुत प्यार करती थीं।मै  कई बार उनके साथ उनके घर भी गयी थी।उस उम्र में क्लास टीचर के घर जाना बहुत बड़ी उपलब्धि थी।जीवन में पहली बार केक का स्वाद भी मैंने उन्ही के यहाँ चखा था।उनसे जुडी बहुत सी यादों की झलकियाँ आज भी ज़ेहन में हैं। मुझे अच्छी तरह याद है,जिस दिन हमारी क्लास की ग्रुप फोटो खिंचनी थी, उन्होंने सबसे पहले मुझे बुला कर अपनी बगल में बैठा लिया था।class sixth की हमारी क्लास टीचर सरोजिनी मिस भी मेरी बड़ी प्रिय टीचर थीं। उस साल state-level पर लखनऊ में एक बाल-मेले का आयोजन हुआ था।मिर्जापुर से हमारे स्कूल की टीम गयी थी जिसमे मै  भी थी और टीचर्स के दल में सरोजिनी मिस भी थी। चलते समय पापा ने सरोजिनी मिस को पच्चीस रुपये दिए,मेरे ऊपरी  खर्चों के लिए।मैंने अपने चार दिन के लखनऊ प्रवास के दौरान खूब मजे किये।मेले में घूम-घूम कर खाया-पिया और शायद कुछ ख़रीदा भी होगा -सब सरोजिनी मिस के पर्स के बूते।जिस दिन हम वापस अपने घर लौटे मुझे तेज बुखार था।मै  घर आकर बुखार में पड़ी सोती रही।उस शाम जब मै  सोकर उठी ,तब माँ ने बताया कि  सरोजिनी मिस मुझे देखने आई थीं और पच्चीस रुपये भी वापस कर गयीं-ऐसी ममतामयी थीं मेरी टीचर .वो जहाँ भी हैं ,उन्हें मेरा नमन!बड़े होने पर कपूर मैम,वीणा मैम ,रोहन दत्त मैम ,रीता मैम ,प्रेम सर .........................बहुत सारे अच्छे अच्छे टीचर्स मिले। आज इतने सालों बाद सभी को याद करके बहुत अच्छा  लग रहा है।हाँ टीचर्स के साथ शरारतों की भी यादें हैं ......class tenth में हमारी English teacher का नाम इला अधिकारी था,जिन्हें हम सब जिला अधिकारी कहते थे और जिस दिन उन्हें यह बात पता लगी थी उन्होंने जिला अधिकारी की तरह ही हमारी पूरी क्लास को पूरे एक घंटे धूप  में खड़ा रहने का फरमान सुनाया था।स्कूल के टीचर्स तो छूट गए ,मगर जाते-जाते बता दूँ  कि जीवन में मेरे पहले और आखिरी शिक्षक मेरे माता-पिता ही हैं।जिनसे मैंने सीखा गिर कर उठना और घुटनों पर या फिर दिल पर  लगी चोट को सहला कर आगे बढ़ जाना। मै  खुशनसीब हूँ ,कि  वो आज भी मेरे साथ हैं।

July 12, 2012

जुलाई का महीना लखनऊ में दशहरी आम का महीना होता है.जून में बारिश के बाद, जुलाई में दशहरी की मिठास....ये बरसों से मेरे जीवन का हिस्सा बन चुके हैं.इस बार जून बीत गया ,बहुत  कम   बारिश  हुई.ठेलों पर दशहरी आम सज तो गए, पर सबके मन में एक ही शंका....क्या बिना बारिश के दशहरी मीठा होगा?दो चार दिन हम आमों में मिठास तलाशते रहे और जुलाई आते-आते दशहरी ,मिठास से लबरेज़ हो उठा.किसी ने कहा.........बिना पानी गिरे इतनी मिठास?
 देखिये बात छोटी मगर गूढ़ है....हम कितनी आसानी से अपने सहज स्वभाव को भूल जाते हैं. प्रतिकूल परिस्थितिओं में तो दूर ,हम कई बार सामान्यतः भी अपनी सहजता खो देते हैं. प्रकृति हमें पग-पग पर दर्पण दिखाती है. तो इस जुलाई लखनऊ का दशहरी आम हमारे मुँह में और जीवन में मिठास घोल रहा है ,साथ ही ये सन्देश भी दिलों तक पहुँचा रहा है कि,क्या हुआ गर पानी नहीं बरसा या कम बरसा हम अपनी मिठास क्यों छोड़ें ?
              जाते -जाते दशहरी की शान में यही कहूँगी कि, "आमों में 'आम' नहीं 'ख़ास' है ये,आषाढ़  की पहली बारिश में जीवन का एहसास है ये."
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May 15, 2012

संसद  का साठवां जन्मदिन.......................१३ मई २०१२ ................. टीवी पर सीधा प्रसारण आ रहा था. आम तौर पर खाली-खाली दिखने वाला संसद भवन का सेंट्रल हॉल खचाखच भरा था.उस दोपहर उसी हॉल में चर्चा के दौरान भी बहुत से सांसद नदारद ही थे. पर अभी सब सजे -धजे बैठ कर शास्त्रीय संगीत का आनंद ले रहे थे और शायद मन ही मन रात्रि-भोज के लिए मूड बना रहे थे. तभी एक उदघोषणा के बाद गायिका शुभा मुदगल का आगमन हुआ.वो आयीं ,आराम से गद्दे पर बैठ कर पूरी संसद को आइना दिखा कर चली गयी.उन्होंने शास्त्रीय गायन शैली में दो प्रस्तुतियां दी ,"इतना ऊँचे उठो कि जितना उठा गगन है"(द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी)और "मज़हब कोई ऐसा बनाया जाये जिसमे इंसान को इंसान बनाया जाये"(नीरज)शास्त्रीय शैली में इन गीतों को प्रस्तुत करना एक साहसपूर्ण कदम था, और  इससे उपयुक्त अन्य कोई गीत हमारे माननीयों के लिए हो भी नहीं सकते .शुभा मुदगल वाकई बधाई की पात्र हैं.हम सब तो अपनी-अपनी भड़ास हवा में निकालते रहते हैं. शुभा मुदगल ने उन्हें मिले मौके को व्यर्थ नहीं गंवाया .

May 13, 2012

तूने फूँके प्राण तन-मन में, माँ तुझसे ही है ये जीवन.

तेरी साँसों की लय पर, सीखा मैंने साँसे लेना.
धड़का ये ह्रदय पहले, सुन कर तेरी ही धड़कन.
 
तूने फूँके प्राण तन-मन में ,माँ तुझसे ही है ये जीवन.

तेरे आँचल में ही देखा, पहला सुखद सपन सलोना.
तेरी बाँहों के  झूले में ,मिट  जाती  थी हर  थकन .

तूने फूँके प्राण तन-मन में ,माँ तुझसे ही है ये जीवन .

जीवन-पथ से चुन कर काँटे,सिखलाया सपनों को संजोना.
हर ठोकर पर गोद तुम्हारी,तुमने ही दिखलाया था दर्पण.

तूने फूँके प्राण तन-मन में,माँ तुझसे ही है ये जीवन.

बनाया स्वाभिमानी तुमने,तो तुम्ही से सीखा मैंने झुकना.
देकर संस्कारों की थाती ,बना दिया ये जीवन उपवन.

तूने फूँके प्राण तन-मन में ,माँ तुझसे ही है ये जीवन.

माँ क्या होती है ,ये मैंने माँ बन कर है जाना,
अपने आँचल के फूलोँ पर करती तन-मन-धन और जीवन अर्पण.

तूने फूँके प्राण तन-मन में माँ तुझसे ही है ये जीवन.

May 11, 2012

कल की ब्रेकिंग न्यूज़......"गटर गैस का सांसदों पर हमला!"
 वाह! भाई वाह! ....हम आप तो गली,मोहल्लों,सड़क ,चौराहों पर जब-तब,यहाँ-वहां,गटर गैस की दबंगई से रूबरू होते ही रहते हैं.पर सांसदों की नाक में गटर गैस जाते ही ब्रेकिंग न्यूज़ बन जाती है. वैसे दबंगई से याद आया कि जैसे जहाँ सलमान खान होते हैं वहां कोई टिक नहीं सकता वैसे ही जहाँ गटर गैस होती है वहां भी कोई नहीं रह सकता.चमाचम गाड़ी ,लक-दक पोशाकें ,एसी की ठंडी -ठंडी  हवा .....इसी के आदी  हैं हमारे सांसद ,बेचारे जेब में पड़े रुमाल को तो बाहर  की हवा खाने का मौक़ा ही नहीं मिलता होगा, चलो कम से कम एक दिन नाक पर रखने में उसका होना भी सफल हुआ.पर सोचने वाली बात है कि इतनी कड़ी सुरक्षा के होते गटर गैस संसद में घुसी कैसे?भई बहते पानी और हवा को भी  कभी कोई रोक सका है क्या?और फेंकिये हमारी समस्याओं को गटर में .प्रकृति को जो आप देते हैं वही आपको वापस मिलता है. इसे कहते हैं........."नैसर्गिक न्याय "(natural justice)

May 09, 2012

ये बात पिछले वर्ष मई के महीने की है .........(मैंने ये तभी लिखा था ,पर आप सबके साथ आज अपनी बात साझा कर रही हूँ)टीवी चल रहा था , मै अपने रोज़मर्रा के काम निबटा रही थी. किसी न्यूज़ चैनल पर ख़बरें आ रही थीं. अचानक एक खबर पर कान खड़े हो गए . खाद्य मंत्री संसद में वक्तव्य दे रहे थे ..........."लोग ज्यादा खाने लगे हैं ,इसलिए महंगाई बढ रही है ,लोगों की आमदनी बढ़ गयी है इसलिए महंगाई बढ़ गयी है."आज जब देश का आम आदमी महंगाई की मार से तिलमिलाया घूम रहा है ,तब हमारे देश की संसद में ही ऐसी बेतुकी और बेहूदी दलील दी जा सकती है.लिखने बैठूं तो सुबह से शाम हो जाए और शाम से सुबह.......फिर भी इन माननीयों का महिमा-मंडन ठीक से ना कर पाऊँ . सो अपनी भड़ास चंद छंदों में .......................................
                 "हम तो महंगाई की मार से मरे जाते हैं ,आप कहते हैं कि हम ज्यादा खाते हैं.
                              तो सुनिए हम आपको बताते हैं
                    हम तो हाड़-तोड़ मेहनत से कमाते हैं, जतन से पकाते हैं,
           मिल-जुल कर खाते हैं, फिर भी  कितने बच्चे भूखे ही सो जाते हैं.
              हम तो महंगाई की मार से मरे जाते हैं,आप कहते हैं कि हम ज्यादा खाते हैं.
                            तो सुनिए हम आपको बताते हैं.
             आप हराम का कमाते हैं,लूट-खसोट कर खाते हैं,
     खा-खा कर हमें ही पकाते हैं फिर भी हम आपको बर्दाश्त किये जाते हैं.
       हम तो महंगाई की मार से मरे जाते हैं ,आप कहते हैं क़ि हम ज्यादा खाते हैं.
          तो सुनिए हम आपको बताते हैं.
      बढ़ी हुई कमाई पर हम अपना दिल भी बढ़ाते हैं,पाई-पाई टैक्स की चुकाते हैं.
       बचे हुए में फिर कुछ बचाते हैं ,फिर भी भविष्य की चिंता में घुले जाते हैं.
       हम तो महंगाई की मार से मरे जाते हैं ,आप कहते हैं कि हम ज्यादा खाते हैं.
                 तो सुनिए हम आपको बताते हैं.
             हम जो लें हँस के चुटकी भी ग़र,आप गुस्से से लाल-पीले हुए जाते हैं.
             खुद संसद की गरिमा को रख ताक पर खुद ही उसे गिराते हैं.
              फिर भी सिर तो हम ही शर्म से झुकाते हैं.
        हम तो महंगाई की मार से मरे जाते हैं,आप कहते हैं कि हम ज्यादा खाते हैं.
                        तो सुनिए हम आपको बताते हैं.
आप चुनाव से पहले बरसाती मेंढक की तरह टर्राते हैं,
झूठे वादों से हमें लुभाते हैं,हमारी खुशियों में सेंध लगाते हैं.
            फिर भी हम आपको चेताते हैं कि,संभल जाओ वर्ना अब हम आते हैं.
           हम तो महंगाई क़ी मार से मरे जाते हैं, आप कहते हैं कि हम ज्यादा खाते हैं.

May 01, 2012

                                                 " मन की बात "


"पिछले दिनों घर में पुताई के बाद परदे लगे तो एक खिड़की के परदे बहस का मुद्दा बन गए . हुआ ये कि उस खिड़की के परदों के बीच पहले थोड़ी-थोड़ी जगह रहती थी ,जो अब नहीं थी. मै अड़ी थी कि परदे वही हैं  अब बड़े कैसे हो गए -मुझे नहीं पता. कुछ देर मगज मारने के बाद मैंने सोचा -जहाँ चारों ओर बेपर्दगी की होड़ मची है ,वहां मेरे घर के परदे तो बड़े ही हुए हैं ...मै क्यूँ  परेशान हो रही हूँ . अगली सुबह ध्यान से देखा तो समझ में आया कि  परदों में छल्ले कुछ ज्यादा पड़ गए हैं और उनके फैलने की गुंजाइश कुछ बढ़ गयी है, इसीलिए अब उनके बीच जगह नहीं रह गयी है. इस तरह ये मुद्दा तो ख़त्म हुआ ,पर मेरे सोच-विचार की सुई 'गुंजाइश' पर अटक गयी.सोचने लगी भगवान् ने ह्रदय की संरचना ऐसी बनाई कि वो रक्त के अधिक-कम दवाब को सह सके. उसमे कोई खराबी हो तो डाक्टरों ने उपाय ढूँढ लिया है -एक छल्ला 'गुंजाइश' का (angioplasty/stenting) मगर रिश्तों को निभाने के लिए जो गुंजाइश दिलों में चाहिए उसका क्या? पहले संयुक्त परिवारों में  घर छोटे होते थे ,आमदनी भी कम-कम  होती थी ,पर दिलों में गुंजाइश की कोई कमी नहीं थी.हर कोई एक दूसरे की अच्छाई -बुराई के साथ स्वयं को समायोजित कर ही लेता था. आज बड़ी-बड़ी कोठियां हैं , ऊँचे-ऊँचे ओहदे हैं ,पर दिल में गुंजाइश का टोटा है. अब तो चलती है जोर-आज़माइश, जहाँ जोर नहीं चलता वहीँ हम झुकते हैं, सहते हैं, दबते हैं. मुझे अपनी ही लिखी एक कविता की दो लाइने याद आ रही हैं..................
"यूँ तो बहुत सहते हैं हम दुनिया के सितम , है गुंजाइश अपनों के लिए ही  कम .
                  चुनते सब कुछ नया जीवन में, बस शिकवे ही पुराने ढ़ोते हैं"
         बात छल्लों और परदे से शुरू हुई थी तो, अगर एक ,सिर्फ एक छल्ला 'क्षमा' का हम अपने हृदय में धारण करें तो बहुत सी शिकायतों पर पर्दा पड़ जाएगा ,और उसकी आड़ में कुछ रिश्ते आसानी से निभ जायेंगे."
                                                                                                                         प्रीति  श्रीवास्तव 

April 27, 2012

 पिछली दो पोस्ट की आखिरी कड़ी



उस सुबह मुझे इन्तजार था  अखबार का.............पर एक दिन पहले खोदे गए गढ्ढे  में बाघ गिरा या पड़वा, ये जानने के लिए मुझे तीन-चार दिन इन्तजार करना पड़ा .खबर मिली कि वन-विभाग ही गढ्ढे में गिर पड़ा.मै कुछ लिखती इससे पहले ही हवा उड़ी कि,रहमानखेडा  में ही टाइगर-सफारी बनाई जा   सकती  है और एक जोड़े बाघ-बाघिन से ये शुरुआत हो सकती है.बताया  गया कि यहाँ का कंटीली झाड़ों से घिरा जंगल और साल भर बहता 'बेह्ता' नालाऔर  शिकार के लिए नील गायों की बहुतायत बाघ के स्थायी निवास के लिए अनुकूल है. पक्ष में एक तर्क ये भी दिया गया कि इसी बहाने लोग काकोरी-शहीद स्मारक भी देख लेंगे. मुझे याद आई उस शेखचिल्ली की जो एक टाई से मैचिंग सूट सिलाने चल पड़ा था.अब टाइगर-सफारी बनाना कोई मुँह का कौर तो है नहीं कि उठाया और खा लिया .वहाँ आबादी भी है,आमों के बगीचे हैं,एक अनुसन्धान -केंद्र है जहाँ लगभग तीन सौ  लोग काम करते हैं. फिर माना कि सब हटा-बढ़ा कर वहाँ किसी तरह टाइगर -सफारी बन भी गयी तो क्या गारंटी है कि वहाँ से भी भटक कर बाघ शहर के बीचो-बीच नहीं आ जायेगा. तब क्या करेंगे ? उत्तर-प्रदेश की राजधानी कहीं और ले जायेंगे?पर हम भारतीयों की एक खासियत तो है कि हम मुंगेरी लाल के हसीन सपनो में खो कर हवाई महल बनाने में देर नहीं लगाते. अगले ही दिन से अखबारों में आने लगा कि  'गाँव वाले खुश हैं' 'यहाँ पर्यटक-स्थल बनेगा' 'रोजगार के अवसर बढ़ेंगे ' सरकारी मुआवजा मिलेगा' ये होगा........वो होगा.......इत्यादि-इत्यादि. आजकल का  मीडिया भी बिना कान देखे 'कौवा कान ले गया'.....कौवा कान ले गया ........का शोर मचाने में  पारंगत है. मैं भी सोचने लगी कि कार से जायेंगे और दो घंटे में बाघ- शाघ  देख कर वापस आ जायेंगे.मुझे फिर से अपनी केरल यात्रा याद आई .
कल सुबह का अख़बार देखा तो पहले ही पृष्ठ पर खबर दिखी 'आख़िरकार पकड़ा गया बाघ' पूरा गाँव उसे देखने के लिए उमड़ा. बड़े से पिंजरे में कैद करके उसे पहुँचाया गया दुधवा अभयारण्य में. इस तरह मिशन टाइगर समाप्त हुआ.सबने राहत की सांस ली.गाँव वालों को आजादी मिली दहशत से ,आमों के भी दिन बहुरे.मगर बाघ के फिर से लौटने का खतरा तो बरकरार  ही है. ढाई महीने की मशक्कत के बाद बाघ को न पकड़ पाने पर उस क्षेत्र को ही बाघ संरक्षित घोषित करने की बात करना, मेरे विचार से एक गलती को छोटा करने के लि ए दूसरी बड़ी गलती करने जैसा ही था. अब जब बाघ पकड़ा जा चुका है तो सरकार की प्राथमिकता दुधवा अभयारण्य को अच्छी तरह सील करने की होनी चाहिए 'ताकि फिर कोई बाघ भटक कर बाहर ना आ सके.और अगर काकोरी का नाम आया ही है तो  बाघ का ये प्रवास व उस पर कुर्बान पड्वों,नील गायों ,भैंसों का जीवन, और  सबसे बढ़ कर वन-विभाग की मेहनत सब  सार्थक होंगे अगर अब भी  सरकार काकोरी के शहीद-स्थल को फिर से सँवारती है .अगर ऐसा हुआ तो मैं कहूँगी कि नब्बे सालों के बाद  दुधवा से एक बाघ आया था हमें भारत माता के शेर-दिल सपूतों की याद दिलाने....................

April 10, 2012

पिछली  पोस्ट से आगे ……………



पिछले साल मैं परिवार के साथ केरल घूमने गयी.काफी खर्चा-बर्चा करके हम periyaar  wild life sanctuary तक गए और सिर्फ जंगली भैंसे   देख कर ही लौट आये. अभी पिछले हफ्ते अखबार में पढ़ा कि लखनऊ के पास रहमानखेडा में एक मंत्री महोदय हाथी पर बैठ कर बाघ से आँखे चार  कर आये ,सच!बड़ी कोफ़्त हुई  गौरतलब  है कि ये मुलाकात सरकारी थी,जिसमे हजारों के वारे-न्यारे हुए. ये वही बाघ है जिसका ज़िक्र मैंने २३ फरवरी को लिखे ब्लॉग में किया है .पिछले तीन महीने से ये बाघ इसी इलाके में घूम रहा है. बाघ मोशाय ने दुधवा-अभयारण्य जिन भी परिस्थितिओं में छोड़ा हो पर लगता है इन्हें यहाँ की आबो-हवा रास आ गयी है. शिकार करने को बंधे-बंधाये जानवर मिले और घूमने को पूरा इलाका ,तो दुधवा किसे याद आएगा. कौन कहता है कि सरकारी खर्चे पर ऐश करना केवल मंत्रिओं और अफसरों को ही आता है.'मुफ्त की ऐश ' बड़ी बुरी लत होती है. बाघ को तो सपने में भी इल्म न होगा कि बागों में आम में कीड़े लग रहे हैं .अब बागवान अपनी जान बचाएं या आम की.गाँव वालों की सहनशीलता की भी दाद देनी पड़ेगी ,इतने दिनों से दहशत झेल रहे हैं. इस बीच प्रदेश  की सरकार बदल गयी ,सरकारी अमला बदल गया ,और तो और मौसम भी बदल गया मगर वन-विभाग और बाघ के बीच 'तू डाल-डाल मैं पात-पात ' का खेल जारी है. आज सुबह अखबार में पढ़ा कि अब गढ्ढा खोद कर उसके पास पड़वा बाँध कर  उसमे बाघ को गिराने की तैयारी है.बाघ के रास्ता  भटक कर आबादी के बीच पहुँचने में कहीं न कहीं  चूक हमसे ही हुई है.तो ना पहले हम गढ्ढा खोदते अपने लिए और ना खोदना पड़ता अब बाघ के लिए.फिर भी देखते हैं इस गढ्ढे में कौन गिरता है बाघ या पड़वा .मुझे इंतज़ार है कल सुबह के अखबार का........................................
"मन के आँगन में है इक 'बचपन'का कोना,
छाया पितृ -स्नेह की ,माँ की ममता का बिछौना.

निश्छल सपनों की खेती चंचल अरमानों की फसल,
सुख के सागर में डूबा हर दुःख से अलोना .

मन के आँगन में................................................

जब भी देखा रुक कर, सजा है सुन्दर हर वो पल,
गीत-खिलौने ,गुड़िया- झूले,इक पल हँसना इक पल रोना.

मन के आँगन में..............................................................

थामा इसी ने मुझे, जब-जब दरका अन्तःस्थल,
भर कर मीठी यादों से किया है ह्रदय को ख़ुशी से दूना.

मन के आँगन में है इक 'बचपन' का कोना ,
छाया पितृ -स्नेह की ,माँ की ममता का बिछौना "   
वो ससुराल में मेरा पहला दिन था.मई की झुलसाती गर्मी और शादी के घर की गहमा-गहमी.पूरा घर मेहमानों से खचाखच भरा था और ऊपर से बिजली गुल!'गुज़रा गवाह' और 'लौटा बाराती' दोनों की क्या दशा होती है -ये तो सभी जानते हैं. सो यहाँ भी हर बाराती मौका देख कर इधर-उधर लोट लगाने की फिराक में था.और जो बची घर की घराती महिलाएं थी वो भी उनींदी सी थीं.आलम ये कि हर कोई अस्त-व्यस्त और पस्त! तभी मैंने ध्यान दिया कि हर दो मिनट बाद किसी न किसी के मुहँ से 'महरी' की आवाज लग रही है और जवाब में  'आवत हई',जो  सुन कर ही उसकी मुस्तैदी का एहसास दिलाता था.मै घूंघट के अन्दर सोचती रही कि,हर वक्त भला महरी का क्या
काम?हमारे यहाँ तो महरी सुबह-शाम आकर बर्तन धो कर चली जाती थी
समय के साथ पता चला कि महरी पड़ोस के घर में ही रहती थी .वो एक परित्यक्ता थी और भरी जवानी में ही बेसहारा होकर बगल वाली चाची के घर आई थी तभी से दोनों घरों में काम करते-करते उसका जीवन बीत रहा था. मैंने एक दिन उससे पूछा'तुम्हारा कोई नाम तो होगा' तब बहुत सोच कर वो खिस्स से हंसी और बोली 'उत्लहली'(उतावली)  उत्लहली के कामों की लिस्ट अंतहीन थी.कभी-कभी वो मुझे अल्लादीन के चिराग वाले जिन्न सी लगती -मुहँ से फरमाइश निकली नहीं कि महरी ये जा और वो जा.वह हमें घर बैठे चाट खिलाती,जूस पिलाती,बिजली-पानी न रहने पर कुएँ के ठन्डे पानी से भरी बाल्टियों से आँगन भर देती और कभी कोई सामान खरीदना हो तो आधी दुकान ही घर में सजा देती.
जिस पति ने कभी उसकी सुधि नहीं ली उसके लिए उसे तीज का कठिन व्रत करते देख मैं क्रोध से भर जाती. वो तो अपनी सौत के बेटों के लिए उपहार खरीदती और खुद हमारे पुराने कपड़ों में ही खुश रहती .उसने मेरे सास-श्वसुर की बहुत सेवा की . पापाजी के न रहने पर हमारे घर की आठ सालों तक देखभाल भी की .फिर जब हमने अपना पैतृक मकान बेचा तब वह अपने गाँव चली गयी. इस बात को आज आठ वर्ष बीत चुके हैं .इसे विडंबना कहूँ या जीवन का कटु सत्य कि जो कभी हमारी दिनचर्या का अभिन्न हिस्सा थी,हमारे हर सुख-दुःख की साक्षी बनी, उससे फिर कभी मिलना न हुआ. पता नहीं वो किस हाल में होगी इस पल उत्लहली के बारे में लिखते समय मेरी आँखों में आँसू हैं और मन में यही प्रार्थना कि वो किसी कष्ट में न हो.
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March 06, 2012

"अबकी होली ऐसे आना ,रंगों की सौगातें लाना.
हरा-भरा हो खुशहाली से दामन,सतरंगी हो सुख-सपनों का  आँगन,
ऐसे सुखद संजोग सजाना.
अबकी होली ऐसे आना .....................
नीले आकाश सा हो विस्तृत मन,सूरज की किरणों का लिए सुनहरापन.
मन को आशाओं के पंख लगाना.
अबकी होली ऐसे आना........
रंग जाये आँचल मेरा तारों से और झलके चांदनी रेशम किनारों से.
उस पर प्यार  भरी बदली बन छाना.
अबकी होली ऐसे आना.....................
लाल रुधिर की लाज है रह जानी,जब हर दिल में भाव उठे केसरिया बलिदानी.
ऐसी तुम एक अलख जगाना.
अबकी होली ऐसे आना...........
एक ही रंग में रंग जाए ये दुनिया प्यारी,मिट जाएँ नक़्शे से लकीरें सारी
ऐसा तुम एक रंग बनाना.
अबकी होली ऐसे आना,रंगों की सौगाते लाना।"
मम्मी की पुण्यतिथि पर सादर ..........."गुलाबी पर्स "............  पिछली दीवाली  मैं घर के बसेमेंट में जाकर कुछ सामान उलट-पुलट रही थी तो एक बक्से में मुझे मम्मी(मेरी सास)का कुछ सामान मिला ,जिसमे एक गुलाबी पर्स भी था .मैंने वो पर्स बरसों पहले अपनी  ससुराल में किसी बक्से में भी देखा था,पर उस दिन वो मुझे बड़ा प्यारा लगा और मै उसे वहां से उठा लाई.ऊपर आकर काम की व्यस्तता में मैंने उसे यूँही किचेन की टाइल्स पर लगे एक हुक में लटका दिया .दीवाली बीत गयी और वो पर्स मुझे वहीँ लटका अच्छा लगने लगा.क्यों कि पर्स गुलाबी था और किचेन की टाइल्स भी गुलाबी.कई लोगों ने उसे देख कर कहा भी कि,'बड़ा प्यारा पर्स है','ये तो handmade है','आजकल कहाँ ऐसी चीज़ें मिलती हैं'......वगैरह -वगैरह.फिर एक दिन मेरी ननद का मेरे घर आना हुआ.वो उस पर्स को देखते ही बोलीं 'अरे ये पर्स तुम्हे कहाँ मिला? ये तो मम्मी का बड़ा ही प्रिय पर्स था .'उन्होंने बताया कि मम्मी घर- खर्च के पैसे में से कुछ बचा कर इसी पर्स में रखती थीं और हम भाई-बहनों की सुनी-अनसुनी मांगों को पूरा करती थीं.बात करते-करते वो भावुक हो गयीं. मेरे लिए वो पर्स इसलिए संग्रहणीय था क्योंकि वो मेरी सास की निशानी थी   और अभी वो  मेरे किचेन में लटका अच्छा लग रहा था पर किसी की भावनाएं भी उससे जुडी थीं ये मैंने उसी दिन जाना ,उसके बाद वो पर्स मुझे और भी अच्छा लगने लगा. बात छोटी मगर गूढ़ है...........अगर आप किसी की भावनाओं की कद्र करते हैं तो उससे जुडी हर बात, हर चीज़ हर व्यक्ति में आपको अच्छाई ही  दिखेगी. वैसे कमी ढूँढने चलो तो एक ढूंढो हज़ार मिलती हैं.लिखने को बहुत कुछ है......... मगर बात छोटी ही अच्छी.....जाने से पहले बता दूँ कि उस रोज़ अपनी ननद के जाने के बाद मैंने भी चुपचाप कुछ सिक्के उस पर्स में डाल दिए.

February 23, 2012

आदरणीय अलका जी की पिन पोस्ट के लिए। दोस्तों ,२०१२ के जनवरी माह के अंत की ये घटना है ,और २३ फरवरी को मैंने ये अपने ब्लॉग पर लिखा था। आज इसे ही शेयर कर रही हूँ। इसी कड़ी में कुछ और ब्लॉग-पोस्ट भी हैं। अगर आप लोग पढ़ना चाहेंगे तो उन्हें भी पोस्ट करूंगी।





" आजकल अखबारों के लखनऊ संस्करण में एक खबर लगातार सुर्ख़ियों में बनी हुई है ..........लखनऊ से सटे रहमानखेडा गाँव में एक बाघ का आना-जाना हो गया है.जंगल से भटक कर ये बाघ  आबादी के निकट कैसे पहुंचा..इसका सीधा उत्तर मनुष्य की प्रकृति के प्रति असंवेदनशीलता में ही छिपा है.इस बारे में बहुत कुछ लिखा -पढ़ा जा चुका है.अब बारी है इसके दुष्परिणामों को भुगतने की.मै बात कर रही थी बाघ की जिसने पिछले डेढ़ महीने से वन-विभाग की नाक में दम कर रखा है,गाँव वाले दहशत में जी रहे हैं वो अलग.वन विभाग रोज़ नई-नई जुगत लगा रहा है पर ये बाघ कुछ ज्यादा ही सयाना है.अब तक सात पड्वे बाघ का निवाला बन चुके हैं. हर बार नया पड़वा(भैंस का बच्चा )बाँधा जाता है बाघ को फंसाने के लिए मगर बाघ हर तरकीब को धता बता कर पड्वे को मार कर चला जाता है.सोचने पर मजबूर हूँ कि मनुष्य और बाघ की इस लुका-छिपी में पड्वे का क्या दोष? यही ना कि वो कमज़ोर,मूक प्राणी है और बंधन में बंधा है. रोज़-रोज़ मिलने वाली दावत बाघ की हिम्मत बढ़ा रही है.शायद बाघ मुंह का स्वाद बदलने की सोचे ...फिर क्या होगा? ये सोचना वन -विभाग के लोगों का सिरदर्द है,मेरा नहीं.अभी मेरे साथ आप भी ज़रा गौर फरमाइए और सोचिये .........ऐसा ही एक मूक पड़वा हम में से अधिकाँश लोगों के भीतर भी तो छिपा है,जिसे हम कभी 'मजबूरी',कभी 'संस्कारों' की दुहाई, कभी  'स्वभावगत आदतों' के बंधन  में बाँध कर आगे कर देते हैं शिकार होने के लिए 'अन्याय ',असंवेदनशीलता',और 'अमानवीयता' के बाघों का.तो इस बार घायल पड्वे को  सहलाते और ज़ख्मों पर मरहम रखते समय संकल्प लीजिये क़ि अगली बार पड़वा नहीं आप   दृढ़ता और हिम्मत से बाघ का सामना करेंगे ,भीतर का पड़वा तो फिर भी  घायल होगा - इसमें कोई   संदेह नहीं,पर आपकी  दृढ़ता और हिम्मत बाघ की उद्दंडता पर कुछ तो लगाम कसेगी ही...... बात कुछ ज्यादा ही तल्ख़ हो गयी शायद! क्या करूं 'मन की बात ' है.
चलते-चलते एक सुझाव ....रहमानखेडा में घूम रहे बाघ को लोकसभा का रास्ता दिखाना चाहिए  ,तब गाँव-वासियों की नहीं सांसदों की जान सांसत में होगी और इस बाघ को पड़वा बनने पर मजबूर होना ही पड़ेगा.देखना दिलचस्प होगा कि बाघ-बहादुर पर कौन सी 'धारा' में मुकदमा चलेगा................."

February 18, 2012

गुलाब दिवस  की शाम को अदले-बदले गए गुलाब के फूल अब तक तो शर्तिया मुरझा गए होंगे, लेकिन उस शाम लूटा और  लुटाया गया प्यार अभी भी दिलों में  हिलोरें मार रहा होगा..........इसी उम्मीद के साथ के , आज की शुरुआत....................हाँ तो उस दिन  कितने ही दिलों में प्यार के बीज पड़े होंगे, बहुतों का प्यार परवान चढ़ा होगा, कई जोड़े प्यार की चरम गति को प्राप्त हुए होंगे (उस दिन शादी की  लगन अच्छी थी.) दरअसल उस शाम जब मैं सब्जी लेने निकली तब चौराहे पर फ्लोरिस्ट की दुकान के आगे लड़के लड़कियों की भीड़ को देख कर मुझे याद आया कि आज तो रोज़ डे  है.मन में कसक भी हुई.....हमारे जमाने में क्यों नहीं  था .हम तो स्वतंत्रता -दिवस ,बाल-दिवस और शहीद-दिवस मना कर ही  बड़े हो गए. फिर लगा प्यार के इज़हार  के लिए किसी ख़ास दिन का इंतजार क्यों?प्यार तो एक ऐसा खूबसूरत एहसास है जो दिल को छूते ही नज़रों से बयान हो जाता है.फिर प्यार  करने  से कहीं ज्यादा मुश्किल है प्यार निभाना..............मगर इस बारे में फिर कभी......
आज  'प्यार करो फुरसत करो' की तर्ज़ पर गली, नुक्कड़, चौराहों ,पार्कों में दिखते जोड़ों  के लिए चंद पंक्तियाँ ..................   ."-प्यार प्यार-प्यार जल्दी से कर लो नज़रें चार
                       कह लो सुन लो दिल का हाल, क्या हो कल किसका ऐतबार.
                      प्यार-प्यार  प्यार जल्दी कर लो नज़रें चार.
                  कल थी नीता  ,आज सुनीता, मीता  बैठी कल को  तैयार.
                  प्यार-प्यार-प्यार  जल्दी से कर लो नज़रें चार.
                 जाना है कहाँ,जायेंगे कहाँ....क्या खोया और क्या पाया सोचेंगे अगली बार.
                 प्यार-प्यार-प्यार  जल्दी से कर लो नज़रें चार"
चलते-चलते ..........क्योंकि बात गुलाब के फूल से  शुरू हुई थी,तो कुछ गुलाब की पंखुड़ियां पुरानी डायरी  या किताबों के पन्नों में भी होंगी .......प्यार  के अनछुए ,अनकहे और अनसुने एहसास को संजोए हुए.प्यार के इस अनोखे ज़ज्बे को मेरा सलाम!

 

February 14, 2012

ख़ुशी-ख़ुशी घर से बाज़ार जाने के लिए निकली ही थी कि,सड़क पर पानी भरा देख कर ख़ुशी काफूर हो गयी.आखिर ये ख़ुशी इतनी क्षणिक क्यों होती है?पर ये तो सच है कि अगर एक पल के लिए भी मन खुश हो जाए तो जीवन में कई सारे क्षण जुड़ जाते हैं.किसकी ख़ुशी किसमे है सोचा तो लगा .........................
दो महीने की गुनगुन की ख़ुशी........माँ के आँचल में.चार साल के वरुण की ख़ुशी........पापा की ऊँगली पकड़ कर चलने में.आठ साल के पप्पू की ख़ुशी..........चुपके से पापा का razor गाल पर चलाने में.बारह साल की महक की ख़ुशी................मम्मी की नक़ल करने में.सोलह के असलम की ख़ुशी...............गर्ल फ्रेंड की मुठ्ठी में.पच्चीस की सुजाता की ख़ुशी milkmaid के डिब्बे की तलहटी में छिपी है ,जो उसे डिब्बा खाली करके ही मिलेगी अब इसे मीठा खाने का बहाना मत कहियेगा ,उनतीस के नीरज की ख़ुशी........नई-नई बीवी के साथ खाना पकाने में.उनतालीस के अनिल की ख़ुशी................बीवी के मायके जाने में.उनचास के चढ्ढा जी की ख़ुशी......चुपके से बेटे का मोबाइल फ़ोन देखने में..............इत्यादि-इत्यादि....मगर सत्तर साल का होते ही सबकी ख़ुशी प्यार के दो बोल में ही छिपी होती है, पर ये दो बोल किस्मत वालों को ही नसीब होते हैं. उफ़! आज कोई गंभीर  बात नहीं .......देखो अभी-अभी मैंने गर्दन घुमा कर काम वाली बाई को आवाज लगा कर पूछा " अर्चना  तेरी ख़ुशी कहाँ है?" जवाब मिला........"अरे भाभी खुसी इहाँ कहाँ उई तो अपनी नानी घरे गयी है."और आज जो मै ये लिखने बैठी  हूँ उसकी प्रेरणा एक phone-call है .सुबह-सुबह पीछे वाली भाभी जी का फ़ोन आया-" हाय  प्रीती आज मुझे इतनी ख़ुशी मिली इतनी ख़ुशी मिली क़ि पूछो मत "मैंने पूछा -"कहाँ भई कहाँ?"उधर से आवाज आई ......drawing room में कारपेट के नीचे .........दरअसल उन्हें वहां अपनी खोई हुई अंगूठी मिल गयी थी. ख़ुशी ऐसी ही है इसे पाना जितना सरल है उतना ही कठिन भी.




'

February 11, 2012

       मेरे कुछ ब्लॉग पोस्ट पढने के बाद मेरे बेटे ने कहा
'अच्छा लिखा  है पर ज्यादा कठिन हिंदी मत लिखना नहीं तो सब भाग जायेंगे" उसका ये कहना कहीं मेरे हिंदी प्रेम को आहत कर गया.हालांकि उसकी ऐसी मंशा नहीं थी.मेरा ये मानना है कि कोई भी लेखक या लेखिका लिखते समय भाषा की कठिनता या सरलता में नहीं फंसता, उसकी अभिव्यक्ति (expression) को जिधर प्रवाह (flow) मिलता है वो उधर ही मुड़ जाता है.मै खुद अंग्रेजी भाषा की क़द्र करती हूँ और ठीक-ठाक पढ़-लिख भी लेती हूँ.और मुझे ये स्वीकार करने में कोई गुरेज़ नहीं है कि अंग्रेजी उपन्यास पढ़ते समय मैं dictionary साथ रखती हूँ. ये विडंबना (irony) ही है कि, कठिन अंग्रेजी जानना और कठिन हिंदी ना जानना एक साथ गर्व का विषय बन गए हैं.गलती आज की पीढ़ी की भी नहीं है उन्हें अंग्रेजी माध्यम तो हमने ही दिया है. फिर भी आज चंद पंक्तियाँ अंग्रेजीदां लोगों के लिए...........................................


"हिन्ददेश के वासियों हिंदी से मुँह  मत  मोड़ो,

माना कि अंग्रेजी की दुनिया है दीवानी ,
अंग्रेजी में ही सोचते हैं अब सारे  ज्ञानी 
पर पिछड़ेपन का ठीकरा हिंदी के सिर  मत फोड़ो.

हिन्द देश के वासियो हिंदी से मुँह  मत मोड़ो 

बघारो इंग्लिश -विंग्लिश जम  कर ,
मत आँको  निज-भाषा को भी कमतर ,
हिंगलिश के चक्कर में हिंदी की टाँग मत तोड़ो 

हिन्ददेश के वासियों हिंदी से मुँह  मत मोड़ो 

खाओ इंग्लिश ,पियो इंग्लिश ,
सुन लो मेरी बस इक यही गुज़ारिश ,
अंग्रेजी की दौड़ में हिंदी को पीछे मत छोड़ो 

हिन्द देश के वासियों हिंदी से मुँह  मत मोड़ो 

यूके हो या यूएस बोलो हर लहज़े की अंग्रेजी 
निज भाषा से प्यार जताने में भी करो ना  कोई गुरेज़ी 
रहो कहीं भी दुनिया में हिंदी से पल्ला मत झाड़ो  

हिन्द देश के वासियों हिंदी से मुँह  मत मोड़ो 

पढ़ो शेक्सपिअर ,काफ़्का और पाओलो कोलो 
महादेवी ,प्रेमचंद ,निराला ,दिनकर को भी ना भूलो 
राष्ट्र भाषा है राष्ट्र गौरव ,इससे तुम नाता जोड़ो 

हिन्द देश के वासियों हिंदी से मुँह  मत मोड़ो "

February 10, 2012

बचपन में घर के आँगन या छत पर लेटे-लेटे तारों से भरे आकाश को देखना मेरा प्रिय शगल था.अक्सर मै  मन में जो भी शब्द आता उसे तारों को जोड़-जोड़ कर बनाती और फिर आसमान की स्लेट पर उसे पढ़ती .पर वो मेरा लिखा मेरे लिए ही होता. कोई और भला मेरी नज़र से देखता भी कैसे.....जरा सी नज़र चूकी और शब्द गायब हो जाता और मैं फिर से नया शब्द बनाने में जुट जाती. इसी में कब नींद आ जाती पता ही न चलता.आज के बच्चों के लिए खुला आसमान कहाँ है?शायद अब घरों की छतों से तारे भी उतने चमकीले नहीं दिखते.मैं भी सोचूं तो लगता है एक अरसा बीत गया तारों से रूबरू हुए. आज जब मैं पहली बार ब्लॉग लिखने बैठी हूँ तो ना जाने क्यों वही बचपन वाला रोमांच हो रहा है ........लग रहा है ये तो ऐसा आसमान है जहाँ मेरा लिखा कोई भी पढ़ सकता है. कैसा लिखूंगी ,कितना लिखूंगी ......ये तो वक्त  ही बतायेगा.पर जब भी लिखूंगी मन की बात ही जगजाहिर होगी.  आज बस एक कविता...........................................

"बचपन की शीतल चांदनी रातों में ,अनगढ़ खेल और बातों-बातों में.
जब-जब टूटा तारा कोई गगन में,तब-तब पाला था इक सपना मन में.
उम्र की जोड़ में,दुनिया की होड़ में,
जीवन की आपाधापी और दौड़ में,
कहाँ मिली फुरसत और कब ये सोचा क़ि सपने भी कुछ कहते हैं कुलबुलाते और सहते हैं.
सपने कभी नहीं मरते,हम ही उन्हें भूल भौतिकता में खोते हैं.
जीवन की  हर विफलता में,मन की  हर दुर्बलता में वे पलते और जीवित रहते हैं."