April 10, 2012

पिछली  पोस्ट से आगे ……………



पिछले साल मैं परिवार के साथ केरल घूमने गयी.काफी खर्चा-बर्चा करके हम periyaar  wild life sanctuary तक गए और सिर्फ जंगली भैंसे   देख कर ही लौट आये. अभी पिछले हफ्ते अखबार में पढ़ा कि लखनऊ के पास रहमानखेडा में एक मंत्री महोदय हाथी पर बैठ कर बाघ से आँखे चार  कर आये ,सच!बड़ी कोफ़्त हुई  गौरतलब  है कि ये मुलाकात सरकारी थी,जिसमे हजारों के वारे-न्यारे हुए. ये वही बाघ है जिसका ज़िक्र मैंने २३ फरवरी को लिखे ब्लॉग में किया है .पिछले तीन महीने से ये बाघ इसी इलाके में घूम रहा है. बाघ मोशाय ने दुधवा-अभयारण्य जिन भी परिस्थितिओं में छोड़ा हो पर लगता है इन्हें यहाँ की आबो-हवा रास आ गयी है. शिकार करने को बंधे-बंधाये जानवर मिले और घूमने को पूरा इलाका ,तो दुधवा किसे याद आएगा. कौन कहता है कि सरकारी खर्चे पर ऐश करना केवल मंत्रिओं और अफसरों को ही आता है.'मुफ्त की ऐश ' बड़ी बुरी लत होती है. बाघ को तो सपने में भी इल्म न होगा कि बागों में आम में कीड़े लग रहे हैं .अब बागवान अपनी जान बचाएं या आम की.गाँव वालों की सहनशीलता की भी दाद देनी पड़ेगी ,इतने दिनों से दहशत झेल रहे हैं. इस बीच प्रदेश  की सरकार बदल गयी ,सरकारी अमला बदल गया ,और तो और मौसम भी बदल गया मगर वन-विभाग और बाघ के बीच 'तू डाल-डाल मैं पात-पात ' का खेल जारी है. आज सुबह अखबार में पढ़ा कि अब गढ्ढा खोद कर उसके पास पड़वा बाँध कर  उसमे बाघ को गिराने की तैयारी है.बाघ के रास्ता  भटक कर आबादी के बीच पहुँचने में कहीं न कहीं  चूक हमसे ही हुई है.तो ना पहले हम गढ्ढा खोदते अपने लिए और ना खोदना पड़ता अब बाघ के लिए.फिर भी देखते हैं इस गढ्ढे में कौन गिरता है बाघ या पड़वा .मुझे इंतज़ार है कल सुबह के अखबार का........................................

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