July 31, 2014

साहित्य सम्राट मुंशी प्रेमचंद की जयंती पर उन्हें शत-शत नमन ! प्रेमचंद जी की प्रायः सभी पुस्तकें पढ़ने का सौभाग्य मुझे मिला है ,पर "गोदान"मेरी सर्वाधिक प्रिय पुस्तक है। यह उपन्यास आज भी उतना ही प्रासंगिक है ,जितना तब था ,जब इसे लिखा गया था। इसके अनेकानेक पठनीय अंशों में से एक अंश आप सबके लिए ----

"वैवाहिक जीवन के प्रभात में मादकता अपनी गुलाबी लालसा के साथ उदय होती है और ह्रदय के सारे आकाश को  अपने माधुर्य की सुनहरी किरणों से रंजित कर देती है। फिर मध्याह्न का प्रखर ताप  आता है ,क्षण-क्षण पर बगूले उठते हैं और पृथ्वी काँपने लगती है। लालसा का सुनहरा आवरण हट  जाता है और वास्तविकता अपने नग्न रूप में सामने खड़ी  होती है। उसके बाद विश्राममय सँध्या  आती है ,शीतल और शांत। जब हम थके हुए पथिकों की भाँति दिन भर की यात्रा का वृतांत कहते और सुनते हैं-तटस्थ भाव से ,मानों  हम किसी ऊँचे शिखर पर जा बैठे हैं ,जहाँ नीचे का जनरूरव हम तक नहीं पहुँचता। "

July 12, 2014

लघु कथा -"दान"      दीनदयाल जी को कोट के अंदर एक और स्वेटर पहनते देख कर ,बहू  रीना ने टोका ,"पापा पार्क में धूप  होगी ,स्वेटर से गर्मी लगेगी। " "नहीं  बेटा  ,गर्मी लगेगी तो कोट उतार कर हाथ में ले लूँगा। " दीनदयाल जी के मन में तो कुछ और ही था। पार्क से लौट कर दीनदयाल जी ,बहू से नज़रें चुराते रहे। शाम की चाय पर उन्होंने रीना से कहा ,"बेटा  आज मेरा स्वेटर चोरी हो गया ,मैंने तुम्हारी बात नहीं मानी ,पार्क में सच में बहुत गर्मी लगी। मैंने स्वेटर उतार कर बेंच पर ही रख दिया था ,पता नहीं कौन आँख बचा कर ले गया। "रीना ने भी झूठे गुस्से से कहा "देखा मेरी बात ना  मानने  का नतीजा। चलिए कल से पहनना हो तो पुराना  स्वेटर ही पहनियेगा। "दरअसल ड्राइवर ने उसे दोपहर को ही बता दिया था कि , पापा जी ने अपना स्वेटर एक गरीब आदमी को दान कर दिया है ,उसने देते हुए देख लिया था। दीनदयाल जी खुश हैं कि ,ज्यादा डाँट नहीं पड़ी। सस्ते में ही निपट गए। 

July 10, 2014

 -लघु-कथा -" ठूँठ "



सुबह के सात बज चुके थे ,अरुणा ने एक नज़र घडी पर डाली और सोचने लगी.. अब तक गंगा काम करने नहीं आई. क्या हुआ ? फिर बीमार पड़ी या बच्चों को कुछ हुआ .. कहलवाया भी नहीं ,इसी उधेड़बुन में उसने एक नज़र सिंक में पड़े बर्तनों पर डाली और एक गहरी साँस लेकर मन ही मन स्वयं को तैयार करने लगी कि,अब बर्तन भी धोने होंगे। तभी कॉलबेल बजी …. दूध वाला होगा … भगौना लेकर अरुणा ने दरवाज़ा खोला तो सामने पड़ोस का नौकर किशन खड़ा था ,बुरी तरह हाँफते हुए उसने बताया कि,गंगा ने अपने पति को जान से मारने की कोशिश की है ,किसी तरह उसका पति जान बचा कर भागा है. गंगा ने अपने आपको और बच्चों को कमरे में बंद कर लिया है और बाहर भीड़ लगी है. अरुणा स्तब्ध सी खड़ी थी .. गंगा जो चींटी मारने की भी हिम्मत नहीं रखती थी ,अपने पति को कैसे मार सकती है . वह पति को बता कर घर से निकल पड़ी ... उसके कदम तेजी से आगे बढ़ रहे थे पर मन पीछे को भाग रहा था .. सात साल पहले गंगा अपनी पाँच साल की बेटी को लेकर अरुणा के घर काम की तलाश में आई थी ,अरुणा को भी तब ज़रुरत थी तो उसने गंगा को रख लिया।
 गंगा बेहद सरल और हँसमुख स्वभाव की थी , अरुणा को कभी उससे कोई परेशानी नहीं हुई. गंगा का पति ज्यादातर घर में ही रहता था ,कामचोरी की आदत और शराब की लत के कारण किसी नौकरी में टिक ना पाता था . इसी बीच उसके तीन बच्चे और हो गए , पैसों को लेकर अक्सर उसकी किच-किच गंगा से होती ,जब-तब वह गंगा पर हाथ भी उठा देता . चोटों के निशान के साथ जब भी गंगा काम पर आती ,अरुणा से नज़र चुराती रहती, और जब भी अरुणा ने उससे ज्यादा पूछने की कोशिश की ,वह आँखों में आँसू भर कर खिस्स से हँस कर कहती "मेरा नसीबा .... बीवी जी ,ऐसे ही पार लगूंगी ." उसकी चोट पर दवा लगाते हुए अरुणा क्रोध से भर जाती और कहती ,"मैं  तेरी जगह होती तो उसे जेल में भिजवाती " तब भी गंगा हँस कर साड़ी का पल्लू मुँह में दबा कर कहती "ना-ना बीवी जी मरद है मेरा "
      गंगा का घर आ गया .... बाहर भीड़ लगी थी,अरुणा ने दरवाज़ा खटखटाया और कहा "गंगा  दरवाज़ा खोलो ,मैं हूँ -अरुणा " अंदर एक कोने में खून से सना बाँका (एक औज़ार ) पड़ा था। कल ही तो गंगा ने उसके माली से यह कह कर ये बांका लिया था कि ,"घर के बाहर पेड़  का ठूँठ  काटना है। " गंगा की बारह वर्ष की बेटी घुटनो में मुँह  गड़ाए बैठी थी। गंगा क्रोध से हाँफ  रही थी,अरुणा को देखते ही उससे लिपट गयी "बीबी जी उसने बाप- बेटी के रिश्ते की भी मर्यादा नहीं रखी  ,मैं क्या करती। "अरुणा ने उसे सँभालते हुए कहा " ठूँठ अभी कटा नहीं है , अब चल मेरे साथ पुलिस- स्टेशन। "गंगा   ने बेटी की रक्षा के लिए वो कदम उठाया जो उसने कभी सोचा भी नहीं था।