November 07, 2013

ध्यानमय जीवन शैली 

                                                  "मैं कौन हूँ ?"

 गुरज़िएफ ने एक कोने से इस विधि का प्रयोग किया। सिर्फ यह स्मरण रखना है कि ,मैं कौन हूँ। रमण  महर्षि ने इसका प्रयोग दुसरे कोने से किया। उन्होंने "मैं कौन हूँ " पूछने को एक ध्यान बना दिया। परन्तु मन जो भी उत्तर तुम्हे दे सकता है ,उस पर विश्वास मत करो। मन कहेगा "यह क्या नासमझी की  बात तुम पूछ रहे हो ,तुम यह हो ,वह हो , शिक्षित हो ,अशिक्षित हो ,अमीर हो या गरीब हो। "मन उत्तर देता ही रहेगा पर पूछते ही चले जाओ। कोई उत्तर स्वीकार मत करो ,क्योंकि ,मन के द्वारा दिए सभी उत्तर झूठे हैं। 
वे उत्तर तुम्हारे झूठे हिस्से से आते हैं। वे शब्दों से आते हैं ,शास्त्रों से आते हैं ,संस्कारों से आते हैं,समाज से आते हैं ,दूसरों से आते  हैं। पूछते ही जाओ। "मैं कौन हूँ "के इस तीर को गहरे और गहरे प्रवेश करने दो। एक क्षण ऐसा आयेगा ,जब कोई उत्तर नहीं आयेगा। वही  सम्यक क्षण है। अब तुम उत्तर के करीब आ रहे हो,क्योंकि मन शांत हो रहा है या तुम मन से बहुत दूर चले गए हो। जब कोई उत्तर नहीं होगा और तुम्हारे चारों  ओर  एक शून्य निर्मित हो जायेगा ,तो तुम्हारा प्रश्न पूछना व्यर्थ मालूम होगा। किससे  तुम पूछ रहे हो ?क्योंकि उत्तर देने वाला अब कोई नहीं है। अचानक ,तुम्हारा प्रश्न पूछना भी बंद हो जायेगा। प्रश्न के साथ ही मन का अंतिम अंश भी विलीन हो गया क्योंकि ,वह प्रश्न भी मन का ही हिस्सा था। वे उत्तर भी मन के थे और प्रश्न भी मन का था। दोनों विलीन हो गए तो अब 'तुम' हो। 
                                                       इस प्रयोग को करो ,यदि तुम लगन से लगे रहे तो ,हर सम्भावना है कि यह विधि तुम्हे सत्य की  झलक दे जाए -और सत्य ही शाश्वत है। 
                                                                                                         ओशो 
                               

September 17, 2013

लघु- कथा   -"बुरी लत"   -जगदीश बाबू  ,अपने बेटे -बहू  ,अमित ,नीता और पोते गट्टू के साथ ही रहते हैं। अपनी पेंशन में से कुछ पैसे बचा कर बाकी ,बहू  के हाथ में ही रख देते हैं।  गट्टू को दादाजी के साथ ,खेलना और बातें करना बहुत अच्छा  लगता है पर माँ नीता उसे हमेशा किसी न किसी बहाने से दादाजी के पास जाने से रोकती है। उसका कहना है कि ,पिताजी को पान मसाला खाने की बुरी लत है और गट्टू को उनके साथ नहीं रहना चाहिए। दोपहर में जब वो सोती है तब भी गट्टू अपने दादाजी से दूर ही  रहे ,इसके लिए वह गट्टू को दो घंटे प्ले -स्कूल में भेजना चाहती है। जगदीश बाबू  ने बेटे अमित से बात की है कि , वो दो घंटे गट्टू की अच्छी देखभाल कर लेंगे ,पैसे भी बचेंगे और उनका मन भी लगा रहेगा।  पति और गट्टू की जिद के आगे नीता की एक न चली।
                                 एक महीने में ही गट्टू ने दादाजी से बहुत कुछ सीख लिया है और खेल-खेल में अच्छे संस्कारों व् जीवन मूल्यों का भी निरूपण हो रहा है। इस बार जगदीश बाबू  ने पेंशन बहू  के हाथ में रखी  तो नीता ने कटाक्ष किया ,"क्यों ?इस बार अपनी बुरी लत के लिए पैसे नहीं रखेंगे ?"जगदीश बाबू  ने मुस्करा कर कहा "बहू  वो लत तो छूट गयी और अब जो लत लगी है…. उसका कोई मोल नहीं है,वो है मुझे मिला मेरे पोते का साथ ……………… ."

September 12, 2013





"मिटने  की तैयारी है ,झूठ सत्य पर भारी है।
बिक रहा ईमान यहाँ ,अब हक़ पर सेंधमारी है ,
अब जागो ,आँखें खोलो ,चुप न रहो ,मुँह  से बोलो ,
बहुत सह लिया  हमने ,अब गद्दारों की बारी है "




September 06, 2013

हाइकू लिखने का प्रथम प्रयास………

१ -'झरते पात
      वसंत आगमन
       नव सृजन '

 २ -'तपती रेत
     उबलता सागर
      ग्रीष्म प्रताप '

३-   'बरखा वृष्टि
       नाचे मन मयूर
       पियु की आस '

४-   'ओस की बूँद
        पूर्ण चन्द्र शरद
         अमृत धरा '

५-  ' कंपित  शिरा
       ठिठुरता सूरज
        शिशिर भोर'
        

September 04, 2013

आज पुस्तकों की बात - ,  मैं अपनी सर्वाधिक प्रिय पुस्तकों में से एक "क्या भूलूँ क्या याद करूँ " का ज़िक्र करना चाहूँगी , डॉ. हरिवंश राय  बच्चन की आत्मकथा का प्रथम भाग। यूँ  तो मैंने उनकी आत्मकथा के चारों भाग पढ़े हैं ,परन्तु,प्रथम भाग को मैं जब भी पढ़ती हूँ ,मुझे हमेशा उतना ही मज़ा आता है।  इस पुस्तक में हरिवंश जी ने अपने शुरुआती जीवन को तो बेबाकी से खोल कर रखा ही है ,साथ ही इसे जीवन के कुछ मूलभूत सिध्दांतों ,व्यावहारिक ज्ञान और एक लेखक और कवि -मन की स्वाभाविक उहा-पोह से भी सजाया है।मैं तो इस पुस्तक की मुरीद हूँ ही, आज आप सबके लिए इसी पुस्तक का एक छोटा सा अंश सांझा कर रही हूँ ,आशा है आप सबको भी पसंद आएगा …………
                                   पेज संख्या -५०
                                "आधी रात के बाद रात की ऐसी घडी आती है ,जब तारों की पलकों पर भी खुमारी छा  जाती है,सदा चलती रहने वाली हवा एकदम थम जाती है ,न एक डाली हिलती है ,न एक पत्ता ,न एक तिनका डोलता है, न एक किनका खिसकता है। उस समय दुसह से दुसह पीड़ा शांत हो जाती है ,कड़ी से कड़ी चोट का दर्द जाता रहता है ,बड़ी से बड़ी चिंता  का पंजा ढीला हो जाता है ,बेचैन से बेचैन मरीज़ को चैन आ जाता है। दमे के रोगी की भी आँख लग जाती है ,विरहिन के आँसू  की लड़ी भी टूट जाती है और महाकाली रात महाकाल की छाती पर सिर  धर कर एक झपकी ले लेती है -ऐसी ही घडी का ध्यान कर ,सप्तशती-कार ने लिखा होगा--"या देवी सर्वभूतेषु  निन्द्रारुपेंड संस्थिता ,नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः "
    तब मैंने कब सोचा था कि ,अवसाद और उन्माद की ऐसी घड़ियों को भोगने का जोग मेरी आँखें भी लिखा कर लायी है.………………. "
                                           

                                              "सुन रहा हूँ शान्ति इतनी,है टपकती बूँद जितनी
                                                ओस की ,जिनसे द्रुमों का गात ,रात भिगो गयी है
                                                               रात आधी  हो गयी है।
                                                इस समय हिलती नहीं है एक डाली ,
                                                  इस समय हिलता नहीं है एक पत्ता।
                                                  यदि प्रणय जागा न होता इह निशा में
                                                  सुप्त होती विश्व की सम्पूर्ण सत्ता। "

September 02, 2013

लघु कथा -"कशमकश"        दिवाकर एक ईमानदार प्रशासनिक अधिकारी है ,अपनी दो साल की नौकरी में एक भी बार उसने रिश्वत नहीं ली है। वह अपनी छोटी सी दुनिया में खुश है ,पत्नी और एक प्यारा सा बेटा। दिवाकर के पिता एक शिक्षक थे और उन्होंने दिवाकर और उसके भाई-बहनों को कम आमदनी में पाल-पोस कर बड़ा किया था व् अच्छे संस्कारों की पूँजी सौंपी थी। पर जब से दिवाकर इस नए शहर में आया है ,उसके ऊपर चारों ओर  से गलत कामों को स्वीकृति देने का बहुत दबाव है ,कल ही एक खनन माफिया रणजीत ने  उसे एक करोड़ की रिश्वत का प्रस्ताव दिया है,उस पर कोई आँच  नहीं आएगी -ऐसा वायदा भी किया है। इतनी बड़ी रकम सुन कर दिवाकर के मन में भी कशमकश हो रही है। रणजीत दो -चार दिनों में फिर आने को कह गया है।
                                                     आज दिवाकर के पिता की बरसी है ,सब भाई-बहन  पैतृक  आवास पर एकत्र हुए हैं ,दिवाकर चुपचाप  छत पर उस कमरे में आ गया है ,जहाँ उसके पिता अध्यन करते थे। उसकी नज़र उस बंद खिड़की पर गयी जो पहले हमेशा खुली रहती थी , उसे अच्छी तरह याद है ,जब पिता जी उसे जीवन की व्यावहारिक बातें या अच्छे जीवन मूल्यों की बातें बताते थे ,तब उसका आधा ध्यान खिड़की से बाहर  मैदान में खेल रहे बच्चों की ओर  रहता था,दिवाकर ने झट आगे बढ़ कर खिड़की खोल दी ………इतने सालों में खिड़की के बाहर  का दृश्य बदल गया है ,खाली  मैदान में पूरी एक बस्ती बस चुकी है ,दिवाकर खिड़की के सामने खड़ा है और  उसे अपने पिता की आवाज़ सुनाई  दे रही है…… 'जीवन में कभी भी लालच में फँस  कर अपने  उसूलों से समझौता मत करना,ये कभी मत भूलना ,जो सत्य के मार्ग पर चलता है अंत में जीत उसी की होती है…… 'दिवाकर को अपनी कशमकश का जवाब और अपना लक्ष्य  मिल गया साथ ही  ये  विश्वास भी  दृढ हुआ कि , बचपन में अनजाने में जो संस्कार पड़ जाते हैं ,वे कभी छूटते नहीं। 

August 30, 2013

 अजय की पत्नी ,रोमा  के घर में आज किटी -पार्टी है ,सुबह से ही वह तैयारियों में व्यस्त है.…………घर भी सजाना है ,किचन में भी काम है। अजय को आज सुबह का नाश्ता और दोपहर का लंच ऑफिस में करने का फरमान सुना दिया गया है। रोमा ने एक बड़ा सा पीतल का लैंप लाकर अजय के सामने रखदिया …. "प्लीज अजय इसे  ज़रा चमका दो ना, ड्राइंग रूम में रखूंगी,नीचे बेसमेंट में पड़ा था ,कितना सुन्दर एंटीक पीस है ,सब जल जाएँगी देख कर। अजय ने गहरी साँस  भर कर ,बेमन से लैंप को  ब्रासो से चमकाना शुरू किया ही था कि,
 लैंप में से धुँआ निकला और एक बड़ा सा जिन्नी सामने आकर खड़ा हो गया , उसने कहा "मेरे आका ,जल्दी से तीन इच्छाएँ  बताओ ,मैं अभी पूरी करूँगा ……… अजय ने खुद को चिकोटी काटी और जब उसे ये लगा कि ,ये सच में जिन्नी ही  है तब वह बोला  "बस तीन ? यहाँ तो इच्छाओं का अम्बार लगा है ,तीन कैसे सोचूँ ? अरे
जिन्नी महाराज ये कलयुग है तीन की जगह तीस पूछो तो कुछ बात बने " जिन्नी ने गर्दन हिलाई ,"ना  जी ना  मेरे आका ,तीन से आगे की औकात नहीं है मेरी ,वो भी जल्दी बताओ नहीं तो मैं वापस लैंप में चला। ।" "नहीं -नहीं  रुको , क्या माँगू……क्या माँगूं  ……. हम्म ……  अच्छा  चलो ,पहली इच्छा  …… "आज जो भी झूठ बोले उसका मुँह  काला  हो जाए " हो जाएगा मेरे आका ,दूसरी इच्छा ………"आज जो भी चोरी करे उसके दुम  निकल आये ""हो जायेगा मेरे आका   "अब तीसरी इच्छा बताईये …। "आज मेरी पत्नी झूठ ना  बोले,और मेरे पर्स से चोरी भी ना करे " ,जिन्नी ने अपना सिर  खुजाया ,"ये तो जरा मुश्किल है फिर भी आपके लिए करूँगा  मेरे आका।
                       अजय टीवी के सामने बैठा हँस -हँस  कर लोट-पोट हो रहा है , संसद में हर पार्टी का नेता मुँह  काला किये बैठा है ,बहुतों की दुम  भी निकल आई है………हर चैनल पर ब्रेकिंग न्यूज़ ………ये कैसी आपदा…….  देश भर में  काले मुँह  वाले और दुम  वाले  बढ़ने की खबर आती ही जा रही है ,अजय को बड़ा मज़ा आ रहा है ,वह जोर-जोर से ठहाके लगा रहा है ……हा!हा!हा …… रोमा ने झकझोर कर अजय को जगाया "ये क्या सुबह-सुबह क्या ठहाके लगा रहे हो ,उठो आज कितने काम हैं ,मेरी किटी -पार्टी है। " अजय उठ कर एकदम खड़ा हुआ और रोमा से बोला चलो बेसमेंट से वो पुराना लैंप उठा कर लाते हैं ,उसे चमका कर ड्राइंग रूम में रखना ,सब जल जायेंगे देख कर ,कितना सुन्दर एंटीक पीस है। " "क्या तुम भी …… कबाड़ चीज़ों के चक्कर में रहते हो ,मैंने उसे कबाड़ी को बेच दिया "रोमा को देख कर अजय ने मन ही मन कहा 'शुक्र करो मेरी तीसरी इच्छा ने तुम्हें बचा लिया ,वर्ना………………. हा! हा! हा! "अजय फिर चादर तान कर सो गया। 

August 29, 2013

आज सुबह से दोपहर तक इंतज़ार था लाइट आने का ,आई भी तो बार-बार जाने के लिए,खैर मेरा किस्सा-ए -इंतज़ार कुछ यूँ  है ……………….
 ये उन दिनों की बात है जब मॉल ,मोबाइल और मल्टीप्लेक्स सिनेमाघर नहीं थे ,ये बात है सन १९७४ की ,तब सिनेमा जाने का प्रोग्राम बनना बड़ी बात हुआ करती थी। मुझे अच्छी तरह याद है ,वो एक छुट्टी का दिन था
हम चारों भाई-बहनों ने पापा को घेर-घार कर मूवी जाने का प्रोग्राम बना ही लिया। ये तय हुआ कि  ,हम १२ से ३ का शो जायेंगे ,माँ ने जल्दी-जल्दी खाने की व्यवस्था की ,साथ ले जाने के लिए भी मठरी -बिस्कुट रख लिए गए ,हम सब नहा  -धो कर तैयार ,भोजन भी हो गया। हमें ११.३० पर निकलना था और ठीक ११. १५ पर पापा के बहुत ख़ास मित्र पधार गए ,(तब लोग बिना पूर्व सूचना के ही आते थे. )अब क्या हो? पंद्रह मिनट में तो वे जाने वाले थे नहीं, पापा ने अन्दर आकर कहा 'चलो कोई बात नहीं हम ३ से ६ वाला शो चलेंगे ,तुम सब अपना होम-वर्क कर लो ,चलेंगे पक्का चलेंगे ,हमारे पास भी बात मानने के सिवा कोई चारा न था। खैर…जब २ बज गए और अंकल नहीं गए तब हमारी बेचैनी बढ़ने लगी ,माँ भी परेशान…फिर हम सबने एक प्लान बनाया औरमै  और मेरी छोटी बहन तैयार होकर जूते-मोज़े पहन कर ड्राइंग-रूम में जाकर चहल -कदमी करने लगे।
थोड़ी देर बाद पापा को हँसी  आने लगी ,अंकल जी भी कभी हमें देखते तो कभी पापा को। आखिर पापा बोल पड़े दरअसल आज बच्चों को पिक्चर दिखाने ले जाना था,तुम १५ मिनट देर से आते तो ,हम लोग निकल जाते।
अंकल खिसियानी सी हँसी  हँस  कर बोले तो पहले बताते मैं तो घर में झगडा कर के आया हूँ टाइम पास कर रहा हूँ ,और १५ मिनट बैठता तो ये शो भी छूट जाता। वो बेचारे तुरंत चले गए ,हम लोग भी जल्दी-जल्दी घर से निकले।कौन सी मूवी देखी  और कैसी लगी -ये तो याद नहीं पर जाने के लिए जो इंतज़ार किया वो याद रह गया। आज भी हम लोग उस किस्से को याद करके हँस  लेते हैं।  

August 28, 2013

लघु- कथा-"पुनर्मिलन "-----विनय बड़ी सी आलिशान कोठी के सामने खड़ा था , नेमप्लेट पर सुनहरे अक्षरों में "प्रवीण वर्मा " पढ़ कर विनय की आँखों में चमक आ गई.…………… प्रवीण उसका बचपन का दोस्त था ,साथ-साथ खेले ,एक ही स्कूल में गए और बचपन के कितने ही सुनहरे पलों को संग -संग जिया। प्रवीण के पिता भी सरकारी अफसर थे ,विनय साधारण घर से था ,पर ये अंतर कभी उनकी दोस्ती के आड़े नहीं आया। प्रवीण की सादगी और सरलता से मुग्ध विनय की माँ कहती -'ये तो कृष्ण -सुदामा की जोड़ी है। ' वे आठवीं कक्षा में थे ,जब प्रवीण के पिता का तबादला दूसरे  शहर में हो गया। उसके बाद कभी मिलना नहीं हुआ। विनय को पता चला था कि , प्रवीण का चयन प्रशासनिक -सेवा में हो गया है ,पर जीवन की आपा -धापी और जिम्मेदारियों ने कभी मौका ही नहीं दिया दोस्त से मिलने का , पिछले दिनों अखबार में एक खबर के माध्यम से पता चला कि,प्रवीण दिल्ली में ही उच्च -पद पर आसीन  है ,विनय भी बेटे के पास दिल्ली में ही था………. सोचा अचानक पहुँच कर  प्रवीण को चकित कर दूँगा। दरबान की आवाज़ से विनय की तन्द्रा टूटी ,"किससे  मिलना  है साहब?"
प्रवीण ने एक कागज़ पर अपना नाम लिख कर दिया ,आधे घंटे के बाद विनय को ड्राइंग-रूम में बुलाया गया ,और कुछ देर इंतज़ार के बाद प्रवीण आया तो दस मिनट औपचारिक बात के बाद प्रवीण ने कहा "अच्छा  दोस्त मुझे तो कहीं निकलना है , तुम्हारा जो काम हो उसके बारे में पूरा ब्यौरा मेरे सेक्रेटरी को दे देना ,मैं देख कर बताता हूँ। " विनय के उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ही प्रवीण चला गया। टैक्सी में घर वापस लौटते समय विनय बचपन की यादों में ही गुम  रहा  ……. टैक्सी से उतरा तो टैक्सी-ड्राईवर ने सीट पर पड़े पैकेट की याद दिलाई "साहब अपना सामान ले लीजिये। " विनय ने कहा "दोस्त ये तुम रखो इसमें घर के बने अचार और लड्डू हैं,बच्चों को खिलाना। " घर में प्रवेश करते समय विनय सोच रहा था ,'काश ! उस रोज़ अखबार न पढ़ा होता तो आज ये पुनर्मिलन न होता। '

August 26, 2013

एक बार फिर से तुम आओ हे! कान्हा ,
बसे उर-आनंद वो बंसी बजाओ हे! कान्हा।

है चहुँ ओर पाप का वमन ,कर रहा असत्य, सत्य का शमन ,
करके दमन पापियों का ,कालिया के जैसे सबक तुम सिखाना।

एक बार फिर से तुम आओ हे! कान्हा ………

छल और कपट ये कैसी अगन , बसे हर मोड़ पर कंस और दुशासन।
करके  पतन दुसाहसियों  का ,हर द्रौपदी का चीर तुम बढ़ाना।

एक बार फिर से तुम आओ हे! कान्हा ………….

पाकर भी  ये दुर्लभ जीवन ,भटक रहा मानव लिए व्याकुल मन।
खोले थे जिसने चक्षु अर्जुन के ,गीता का वही  ज्ञान तुम सुनाना।

एक बार फिर से तुम आओ हे! कान्हा,
बसे उर-आनंद वो बंसी बजाओ हे! कान्हा।

August 23, 2013

एक 'चुप ' में  हैं दबे बोल कई अनकहे।
ज़रा सा रुको, मन के घाव हैं अभी नए ,
अभी ही धडकनों ने कई घात हैं सहे।

एक 'चुप' में हैं दबे बोल कई अनकहे।
तोड़ो न सहज-सम्बंधों के तार, जीवन -रागिनी लिए,
अवलंबन  हैं ये ह्रदय के,नेह-संजीवनी गहे।

एक 'चुप' में हैं दबे बोल कई अनकहे।
मत करो इतना  विवश कि ,ये बाँध टूट जाए ,
भावनाओं  के सैलाब में फिर क्या-क्या न बहे।

August 18, 2013

भीतर मन में बेचैनी है, बाहर बड़े झमेले हैं।
छुद्र स्वार्थ भरे जग में ,जीवन के सुख-दुःख झेले हैं।
अब कैसे छूटेगा ये ,जन्म-मरण का बंधन शाश्वत ,
हर पल मन अब तडपे है ,मुक्ति की राह टटोले है। 

August 12, 2013

              " एक सपना"


"कल रात मैंने भी एक सपना देखा……….
मै सपने में सपने बुन रही हूँ ,खुशियों के फूल चुन रही हूँ।

आज बेटी ने घर आकर बोला ,माँ आज किसी ने मुझे नज़रों से नहीं तोला,
पति ने भी उसमे जोड़ा ,आज किसी ने यातायात नियम नहीं तोडा।
कामवाली भी खिली-खिली है ,आज सब्जी के साथ धनिया मुफ्त में मिली है।

मैं सपने में सपने बुन रही हूँ ,खुशियों के फूल चुन रही हूँ।

टीवी पर ख़बरें आ रही हैं ,सभी पार्टियाँ सुर में सुर मिला रही हैं ,
आज किसी अबला की अस्मत नहीं लुटी ,ना ही जंतर-मंतर पर भीड़ जुटी।
बात हो  रही है ,सैनिकों के मान की ,नारी  के सम्मान की और चर्चा है प्रगति के सोपान की।

मैं सपने में सपने बुन रही हूँ ,खुशियों के फूल चुन रही हूँ।

लोगों की सोच रही है बदल ,अब केवल धन ही नहीं है प्रबल ,
'सत्य' की हो रही है अब कद्र ,नेता सभी हो गए हैं अब भद्र।
उदय हो रहा है ,नए कल का सूरज , रंग ले ही आया हम सबका धीरज।

मैं सपने में सपने बुन रही हूँ ,खुशियों के फूल चुन रही हूँ।

काश ! कि , ये सपना कभी न टूटता……….

मैं जागी आँखों से'सच' का सामना कर रही हूँ ,बेटी की भरी आँखें,पति की बेवज़ह  झुंझलाहट,
नेताओं का दंगल ,सैनिकों का अपमान ,'दामिनी ' का लुटता सम्मान ,हर पल आतंक की आहट।
पर मैंने भी छोड़ी नहीं है आस ,है मन में यही विश्वास ,हम जिन्हें संजोते हैं ,सपने भी वही  सच होते है।"


                                                                                                          प्रीति श्रीवास्तव 
'

August 08, 2013

 लघु कथा -"नैसर्गिक न्याय"

  आलोक को आज प्रमोशन मिला है, पिछले दो साल में ये उसका तीसरा प्रमोशन है और क्यों ना हो .... इन दो सालों में आलोक ने अपनी दवा  कंपनी के लिए जी-तोड़ मेहनत  की है। एक छोटी सी कंपनी को प्रादेशिक स्तर  की प्रतिष्ठित कंपनी बनाने में आलोक का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। बॉस मि. मेहता आलोक से खासे प्रसन्न हैं। आज ऑफिस में भी पार्टी थी , आलोक ने घर आते समय बेटे अपूर्व के लिए कुछ कपडे और खिलौने लिए है, कितने दिन हो गए उसे घर में पत्नी और बेटे के साथ समय बिताये हुए ,इन सालों में वो बस मशीन की तरह काम में ही जुटा  रहा। अब कुछ समय फुरसत से घर में भी व्यतीत करूँगा .......  यही सोचते हुए उसने प्रसन्न मन से घर की ओर गाड़ी मोड़ ली। गली के मोड़ पर ही किसी ने बताया ,पत्नी बेटे अपूर्व को लेकर अस्पताल में है ,अस्पताल पहुँच कर पता चला ..... आज  अपूर्व स्कूल की पिकनिक पर गया था ,शहर से २५ किलोमीटर दूर , वहाँ  फिसल कर गिरने के कारण उसके सिर  में चोट लग गयी और स्थानीय डॉक्टर ने उसे कुछ दवा  दी थी ,उसी दवा  के रिएक्शन से अपूर्व की हालत बिगड़ गयी ,आलोक दौड़ कर ICU में पहुंचा ,डॉक्टर ने उसे तसल्ली दी ,अब अपूर्व बेहतर है पर नकली दवा  की वज़ह से ही अपूर्व की ये हालत हुई है। आलोक सन्न रह गया ,पिछले दो सालो में उसने कितनी  नकली दवा छोटे कस्बों और गाँवों  में सप्लाई की है ....... आज अगर अपूर्व को कुछ हो जाता तो? आलोक ने जेब से प्रमोशन लैटर निकाल कर फाड़ दिया और अपूर्व का माथा चूम लिया ......... 

August 06, 2013

कविता .......

       आजकल मेरे घर के सामने एक वृक्ष ,दिन दूना ,रात चौगुना बढ़ रहा है,
        इस जुलाई पानी न के बराबर बरसा ,फिर भी वृक्ष आकाश चढ़ रहा है।
     
        एक दिन मैंने उसके पास जाकर ,फुसफुसा कर पूछा,
        महाशय ,इस तरक्की का राज़ बताएँगे ,हम भी अपने बगीचे में आजमाएंगे।
     
        वृक्ष गर्व से तन,बेपरवाही से अपनी टहनियों को लचका कर बोला ,
        ये राज़ बड़ा ख़ास है,इसे बताने का अधिकार नहीं हमारे पास है।
     
        बस !इतना जान लीजिये ,ये सरकारी 'ज़मीन' है ,
         मतलब? मतलब बड़ा ही महीन है ...............

         सरकारी ज़मीनों पर मेरे जैसे कई पनप रहे हैं ,
         पर, मेरे बगीचे में तो वृक्ष बिन पानी कलप  रहे हैं।

        वृक्ष ने विद्रूपता भरी मुस्कान के साथ मुँह खोला,
        और अबकी सब सच-सच ही बोला............

       महोदया  मैं हूँ वृक्ष 'भ्रष्टाचार ' का भरपूर पोषित ,
       पनपता हूँ मैं ,जब जनता होती है शोषित।

      मुझे चाहिए बेशर्मों  की आँख का पानी ,बेईमानी की बहार,
      मेरे फल खाते देश के नेता,देश के अफसर,देश के पालनहार।

      मैंने दृढ़ता से कहा -मैं तुझे सुखाऊँगी,
      अपने घर के सामने से हटाऊँगी ............

     वृक्ष हुँकार के साथ झूम कर  लरज़ा ,
     थोड़ा  और तन कर , मुझ पर गरजा ..............

     मेरे रौब-दाब ,दबंगई की एक ही शाख काफी है तुझे दबाने के लिए ,
     मैंने भी शालीनता से कहा ,'शर्म 'के पानी की एक बौछार  ही काफी है तेरे मुरझाने के लिए।

     
   
   

       
 .

July 31, 2013

   लघु-कथा.....                         " मूर्ति "

"आज  मंत्री जी की कोठी दुल्हन की तरह सजी है.....  आखिर उनकी इकलौती बेटी की शादी जो है. उनके विभाग के अफसर पिछले एक महीने से इस शादी की तैयारियों में व्यस्त हैं ,पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है. मंत्री जी का घर मेहमानों से खचाखच भरा है. बड़े-बड़े पंडाल ,गोल मेजों के चारो ओर  बैठने की कुर्सियां ,एक ओर मशहूर ग़ज़ल-गायक कार्यक्रम पेश कर रहे हैं ,तो दूसरी ओर  वर-वधू  के बैठने के लिए स्टेज बनाया गया है। एक कोने में बड़ी सी मेज़ पर तोहफों का अम्बार  लगा है।  खाने-पीने की भी बड़ी आलीशान व्यवस्था है,देसी-विदेशी हर प्रकार के लज़ीज़ व्यंजन हैं........ वहीँ बीचो-बीच एक फव्वारा चल रहा है, जिसके पास एक छोटी सी बच्ची की मूर्ति लगी है,ऐसा लगता है -अभी बोल पड़ेगी।
   आधी रात तक शादी का जश्न चलता रहा....... सबने खूब खाया और खूब बर्बाद किया। अब मेहमान लौट रहे हैं , फव्वारा अभी भी चल रहा है ,पर मूर्ति शायद किसी ने लुढका दी है.अरे-रे.......  ये क्या एक आदमी आकर उस मूर्ति को हिला  कर चिल्ला रहा है,"ये तो सो गयी......  सारा शो ख़राब कर दिया ,कहाँ है इसका बाप ?"
 जी हाँ ! मूर्ति नहीं ये छोटी सी बच्ची है. बच्ची का पिता हाथ जोड़ कर खड़ा है ,"साहब बच्ची भूखी है,थक कर सो गयी शायद।"   " चुप्प " आदमी दहाडा। उस आदमी की  डांट  सुन कर वह  चुपचाप बच्ची को लेकर वहाँ  से निकल जाता है। अगली सुबह शहर में चर्चा थी.......  मंत्री जी के यहाँ एक हज़ार लोगों ने खाना खाया ,पर किसी को पता भी न चला कि , एक मूर्ति  वहाँ  से भूखी भी गयी.......


                                                                                                                         प्रीति  श्रीवास्तव
                                                                                                                       5/188, विपुल खंड
                                                                                                                       गोमतीनगर ,लखनऊ।
                                                                                                                         उत्तर प्रदेश। 

July 30, 2013

शीर्षक पढ़ कर आप जो सोच रहे हैं वैसा बिलकुल नहीं है ,जैक्स और जेनिफर कोई दो इंसान नहीं ,कुत्ते और कुतिया का नाम है।  ये खुशनसीब जोड़ा अमृतसर का है। आगामी ११ सितम्बर को इनकी शादी अमृतसर में बड़े धूमधाम से होना तय है ,शादी से पहले सगाई और मेंहदी की रस्म भी होगी। रुकिए ,और सुनिये…शादी के बाद हनीमून लन्दन में मनेगा।सुना है ,बड़ी महफ़िल सजेगी, मशहूर पंजाबी गायक साबर कोटी कार्यक्रम पेश करेंगे ,नामी -गिरामी लोग शादी में शामिल होंगे।आज सुबह अख़बार में ये खबर पढ़ कर पहले तो मुझे खूब हँसी  आयी ,फिर इन कुत्तों के मालिकों के मानसिक-दिवालियेपन पर तरस….. चलो पशु-प्रेमी होना अच्छी बात है ,और अगर धन अधिक है तो ,उसके संचय की प्रवृत्ति भी ठीक नहीं है,उसे खर्च करना ही चाहिए ,पर ये क्या तरीका हुआ ? जैक्स और जेनिफर को तो इल्म भी नहीं होगा कि ,जिस धन का कहीं सार्थक उपयोग हो सकता था ,उसे उनकी तथाकथित शादी पर बहाया जा रहा है, अतः उन्हें तो मैं दोष नहीं देती ,किन्तु श्री आर के खोसला और बावा महोदय (जैक्स और जेनिफर के मालिक ) की अक्ल पर पत्थर पड़े हैं क्या ?अरे! वे 'विवाह'जैसे पवित्र संस्कार का तो मजाक उड़ा  ही रहे हैं ,साथ ही मजाक उड़ा  रहे हैं उन हजारों-लाखों गरीब इंसानों का, जो पैसों की कमी के कारण  अपनी बेटियों का विवाह नहीं कर पाते हैं.उसी अमृतसर में उनकी कोठियों के आस-पास ही ऐसे लोग मिल जायेंगे। लानत है ,ऐसी दरियादिली पर जिससे किसी का भला ना हो और आग लगे ऐसे पैसों में जिसका सदुपयोग ना हो। विडंबना देखिये -जिस देश में गरीबों के खाने के लिए पाँच  रुपये की राशि पर्याप्त मानी  जाती हो ,वहीँ कुत्तो की शादी पर लाखों के वारे-न्यारे होते हैं। ऐसा विरोधाभास शायद ही दुनिया में कहीं और देखने को मिले…। हम-आप तो ऐसी ख़बरों पर अपना सिर  ही धुन सकते है… वो भी कब तक ?

July 03, 2013

uttarakhand trasdi....

उत्तराखंड त्रासदी को आज पंद्रह दिन बीत गए ,पिछले पंद्रह दिनों में अख़बारों में ,ब्लॉग पर बहुत कुछ पढ़ा और टीवी पर बहुत कुछ देखा ......मन बहुत व्यथित है। लाखों लोग सही-सलामत घरों में लौट आये तो हज़ारों लोग काल के मुँह  में समा गए।चरों धाम में हुई प्रलयंकारी तबाही के कारणों के बारे में खूब लिखा,पढ़ा और सुना जा चुका है। प्रकृति ने अपने दोहन का बदला लिया और जम  कर लिया।ये दुःख की बात है कि ,ऐसा हमारे देश में ही है, जहाँ हमने प्रकृति से सिर्फ लेना ही सीखा है ,धरती, नदी और पहाड़ों का संरक्षण करना हमें आया ही नहीं , ऐसा हमारे देश में ही है जहाँ ,लाखों लोग चार-धाम की दुर्गम यात्रा भगवान्-भरोसे ही करते हैं ,इक्कीसवीं सदी में जब मौसम की भविष्यवाणी सौ प्रतिशत सही होनी चाहिए वहाँ पर्याप्त संसाधन ही नहीं हैं। ऐसा हमारे देश में ही है जहाँ चार-पाँच  वर्ष के मासूम बच्चे जिन्हें 'ईश्वर 'और 'जीवन' जैसे गूढ़ शब्दों का अर्थ ही नहीं मालूम ,वे भी चार-धाम की यात्रा पर निकलते हैं ,ऐसा हमारे देश  में ही है जहाँ लोग केवल दिखावे के लिए एक ही तीर्थ-स्थान की कई कई बार यात्रा करते हैं। विडंबना ही है कि ,इस दुःख की घडी में भी हमारे माननीय-गण दिल्ली और देहरादून में सियासत की गुलेल से एक-दूसरे पर निशाना साध रहे थे,हम लानत भेजते हैं उन सभी पर ,लेकिन हमें नाज़ है अपने देश की सेना पर ,जिसने ना दिन देखा न रात ,ना पहाड़ देखा ना खाई ,ना नदी देखी  ना पथरीली डगर ,हर जगह ,हर मोर्चे पर सेना ने अपनी सार्थकता सिद्ध की है ,ITBP और NDRF के जवानों ने भी सराहनीय काम किया है ,उन सभी जांबाजों को मेरा सलाम ! अपनों को खोने का गम तो समय के साथ ही भरेगा पर अभी तो सबसे बड़ी चुनौती है तबाह हुए गाँवों के पुनर्वास की। चारों धाम में जीवन सामान्य रूप में लौटे और लोग वहाँ  पुनः जाएँ ,इसमें अभी काफी वक़्त लगेगा। कैसा होगा वहाँ  का स्वरुप और कैसी होंगी सभी व्यवस्थाएं -ये सब अभी भविष्य के गर्त में ही है।  सैकड़ों दौरे होंगे ,हज़ारों मीटिंगे होंगीं ,लाखों ठेके बटेंगे और करोड़ों ,अरबों का वारा-न्यारा होगा ,फिर भी नतीजा क्या होगा पता नहीं।पर यही वो वक़्त है जब सरकार को कुछ कठोर कदम उठाने चाहिए।मेरी साधारण बुद्धि से मुझे कुछ बातें समझ में आती हैं ,उनका उल्लेख करना चाहूंगी ......

१ -चारों  धाम में मंदिर -परिसर के पुनर्वास में प्रकृति के संरक्षण का पूरा ध्यान रखा जाए।
२- धर्मशालाएं और दुकानें सुरक्षित स्थान पर ही बनवाई जाएँ ,इस सम्बन्ध में GSI का सर्वेक्षण उपयोगी हो सकता है।
३- वहाँ  जाने वाले तीर्थयात्रियों की न्यूनतम आयु चालीस वर्ष व् अधिकतम आयु साठ वर्ष ही हो।
४-जीवन में बस एक बार ही वहाँ  जाने की अनुमति हो ,इस सम्बन्ध में आधार -कार्ड का सहारा लिया जा सकता है।
५-एक निश्चित समयावधि में निश्चित संख्या में ही श्रद्धालु मंदिर-परिसर में हों।
६-मौसम -विभाग को अत्याधुनिक संसाधनों से युक्त किया जाए तथा मौसम की भविष्यवाणी सौ प्रतिशत सच हो।
७ -NDRF का और विस्तार और सुसंगठन किया जाए तथा यात्रा के हर पड़ाव पर उनकी मौजूदगी सुनिश्चित की जाए।
८ -आस-पास के पहाड़ों पर मार्ग व् दिशा -सूचक बोर्ड लगाए जाएँ।
९ - तीर्थ-यात्रिओं के लिए चारों धाम की यात्रा सुगम हो ,इससे कहीं पहले वहाँ  के गाँवों में जीवन सामान्य हो -ये सुनिश्चित होना चाहिए।

यही समय है जब हम सबको गंभीरता से सोचना होगा कि ,हम अपने धार्मिक -स्थलों को अपनी आस्था के प्रतीक के रूप में देखना चाहते हैं या उसे पर्यटक -स्थल बना कर वहाँ  की पवित्रता और शान्ति को नष्ट करना चाहते हैं।निश्चय ही चुनौतियाँ बड़ी हैं और कठिन भी। कब,क्या और कैसे होगा -ये तो वक़्त ही बताएगा।
अंत में जाने से पहले इस त्रासदी से प्रभावित हर इंसान और उत्तराखंड के ज़र्रे-ज़र्रे की ओर  से प्रार्थना स्वरुप रामायण की ये चौपाई कहना चाहूँगी ......."मोरि  सुधारिहीं सो सब भाँति ,जासु कृपा नहीं कृपा अघाती "

May 18, 2013

देश की सीमाओं का लंघन करने वालों के सुधरने की आस कब तक ?

"हम क्यूँ ये सोचते हैं कि ,'वो' भी कभी सुधरेंगे....................

'वो'जो अलग हुए थे कभी नफरत की बिसात पर,
खाया है धोखा हमने उनकी हर बात पर .
क्या उनकी सोच के रंग भी कभी बदलेंगे ?

हम क्यूँ ये सोचते हैं कि ,'वो'भी कभी सुधरेंगे ......................

बढाया तो था कई बार दोस्ती का हाथ ,
हर बार उन्होंने ही मौके पे छोड़ा  साथ .
क्या अब 'वो'अपनी बात से नहीं मुकरेंगे?

हम क्यूँ ये सोचते हैं कि ,'वो'भी कभी सुधरेंगे .................

खेल कर भी देखा ,चला कर रेल को भी देखा ,
उनकी रुसवाइयों से हमने कुछ भी नहीं सीखा .
क्या 'वो' पत्थर-दिल भी कभी पिघलेंगे?

हम क्यूँ ये सोचते हैं कि ,'वो'भी कभी सुधरेंगे ..............

लाँघ  कर खुद ही सीमाओं को कहते है -सीमा में रहो,
हम भी खूब हैं , सोचते हैं चलो भावनाओं में बहो .
क्या किसी 'सरबजीत'के दिन भी कभी बहुरेंगे?

हम क्यूँ ये सोचते हैं कि ,'वो'भी कभी सुधरेंगे .........

काम न आया कोई दबाव और कैसी भी सख्ती,
'उन्होंने'तो टांग रखी  है गले में तख्ती .
इरादे हैं हमारे 'नापाक'हम कभी नहीं सुधरेंगे .

हम क्यूँ ये सोचते हैं कि , 'वो' भी कभी सुधरेंगे ............
'



May 15, 2013

"मत चूक चौहान,अबकी कर दे तू मतदान।


क्या बैठा है घर के अंदर,बाहर आ और देख बवंडर,
कैसे-कैसे भ्रष्टाचारी बन बैठे बलवान,
अबकी कर दे तू मतदान।

मत चूक चौहान,अबकी कर दे तू मतदान।


घोटालों पर घोटाला,कर के बैठे सब मुँह काला ,
क्यूँ चिढ़ता जब चुनता नहीं- होनहार बिरवान ,
अबकी कर दे तू मतदान।

मत चूक चौहान,अबकी कर दे तू मतदान।


किसे चुनू ,और किसे नहीं,क्या है कोई एक सही,
सोच ले जी भर,पर मत बन अब नादान,
अबकी कर दे तू मतदान।

मत चूक चौहान ,अबकी कर दे तू मतदान।

मत  मत कर  तू 'मत'  कर दे हर कीमत पर,
लोकतंत्र के यज्ञ की ये आहुति बड़ी महान,
अबकी कर दे तू मतदान।

मत चूक चौहान,अबकी कर दे तू मतदान।"



May 11, 2013

माँ मेरी प्यारी माँ .............जन्म के बाद सबसे पहले शायद मैंने तुम्हे ही पुकारा होगा ,मेरी पहली मुस्कान पर भी सबसे पहले तुम्हीं वारी  होगी,पहली बार जब कदम लडखडाये होंगे तब भी तुम्हीं ने संभाला होगा, पहला अन्न का निवाला भी तुम्हीं ने खिलाया होगा ,वो थक कर तुम्हारी गोद में सो जाना ....वो तुम्हारा मेरे सिर  में तेल लगाना,मेरी चोटी बनाना.......वो स्कूल से आकर अपनी अलमारी सहेजी हुई मिलना ..........वो मेरी पसंद की चीज़ खुद न खाकर मुझे खिला  देना ..............वो मेरी ग़लतियों  पर मुझे समझाना और फिर उन पर पर्दा भी डालना .............इन सबका मोल मैंने तब समझा जब मै  खुद माँ बनी।
  कुछ भी हो माँ तुम बिलकुल नहीं बदलीं ...क्योंकि जब मै  पाँच  बरस की थी तब भी तुम मुझे दूध पीने के लिए डांटती थीं और आज जब मै  पचास की होने को आई तब भी तुम पूछना नहीं भूलतीं कि ,'दूध तो पीती हो ना?'पर एक प्रश्न मुझे बार-बार कचोटता है ,आज पूछती हूँ ,मैंने तो इस दुनिया में सबसे पहले तुम्हे ही अपना जाना था,सब कहते भी हैं कि  मै  तुम्हारी पेट-जायी  हूँ ,फिर तुम ये क्यों कहती हो कि  ,मै  परायी हूँ।






तूने फूँके प्राण तन-मन में, माँ तुझसे ही है ये जीवन.

तेरी साँसों की लय पर, सीखा मैंने साँसे लेना.
धड़का ये ह्रदय पहले, सुन कर तेरी ही धड़कन.
 
तूने फूँके प्राण तन-मन में ,माँ तुझसे ही है ये जीवन.

तेरे आँचल में ही देखा, पहला सुखद सपन सलोना.
तेरी बाँहों के  झूले में ,मिट  जाती  थी हर  थकन .

तूने फूँके प्राण तन-मन में ,माँ तुझसे ही है ये जीवन .

जीवन-पथ से चुन कर काँटे,सिखलाया सपनों को संजोना.
हर ठोकर पर गोद तुम्हारी,तुमने ही दिखलाया था दर्पण.

तूने फूँके प्राण तन-मन में,माँ तुझसे ही है ये जीवन.

बनाया स्वाभिमानी तुमने,तो तुम्ही से सीखा मैंने झुकना.
देकर संस्कारों की थाती ,बना दिया ये जीवन उपवन.

तूने फूँके प्राण तन-मन में ,माँ तुझसे ही है ये जीवन.

माँ क्या होती है ,ये मैंने माँ बन कर है जाना,
अपने आँचल के फूलोँ पर करती तन-मन-धन और जीवन अर्पण.

तूने फूँके प्राण तन-मन में माँ तुझसे ही है ये जीवन.

May 01, 2013

अमेरिका में आज़म खान की जामा  तलाशी पर आज़म  खान और उनके समर्थको ने इतना शोर क्यों मचा   रखा है -ये समझ के बाहर है। अमेरिका के बोस्टन शहर में हाल ही हुए धमाकों में इतनी बड़ी संख्या में लोग घायल हुए थे-ये सबको पता है। अब वहाँ  सुरक्षा-व्यवस्था में सख्ती बरता जाना ,कोई अचरज की बात नहीं है। अमेरिका में तो आम दिनों में ही सुरक्षा के नियमों का कड़ाई  से पालन होता है। वहां हवाई-अड्डों पर तलाशी-प्रक्रिया से हर इंसान को गुज़रना  पड़ता है ,फिर चाहे वो किसी भी देश का नागरिक हो, नेता हो या खान ही क्यों न हो। हमारे देश के नेता कुछ ज्यादा ही ego-friendly हैं।यहाँ लाल बत्ती की गाड़ी,बन्दूक-धारी  गार्डों से घिरे  और हर जगह वी .वी .आइ .पी  इंतजामों में रहने वाले को अगर एयर-पोर्ट का साधारण अधिकारी तलाशी देने को कहेगा तो उसके अहम् को कितनी चोट पहुंचेगी -ये अंदाज़ा कोई भी लगा सकता है। अपने देश में भले ही आप माननीय गण  नियमों की धज्जियाँ उड़ायें पर अमेरिका या किसी भी दूसरे  देश में तो आपको वहाँ  के नियमों का पालन करना ही पड़ेगा। मुझे नहीं लगता कि , अमेरिका में जान -बूझ कर मुसलामानों के खिलाफ साजिश होती है,अगर ऐसा होता तो दुनिया भर के और भारत के भी इतने मुसलमान वहाँ  सुख-चैन से न रह रहे होते।
हाँ मैं  ये मानती हूँ कि ,वहाँ  की आव्रजन-नीति कठोर है और वे उसका कड़ाई  से पालन भी करते हैं।अगर उन्हें किसी पर शक भी हो जाए तो वे पूरी तसल्ली करके ही मानते हैं-इसमें क्या गलत है ?हमें भी उनसे सीख लेनी चाहिए।मै  ऐसा इसलिए नहीं कह रही कि ,मै  अमेरिका की बहुत बड़ी हिमायती हूँ। बात आज़म खान की तलाशी से शुरू हुई थी .......आज़म खान  समाजवादी पार्टी के एक कद्दावर नेता हैं और मै  उन्हें वाजिब तौर पर ईमानदार भी मानती हूँ ,जो वे कहते हैं ,करते भी हैं।अच्छा होता अगर वे अमेरिका में हुई तलाशी को निरपेक्ष भाव से लेते और वापस आकर अपने देश में भी वैसी ही कड़ी सुरक्षा -व्यवस्था की हिमायत करते ...........पर ये तो हो न सका ...........जाते-जाते यही कहूँगी कि, 'हंगामा है क्यूँ बरपा ......तलाशी ही तो ली है,आपका वजूद तो  नहीं।

April 28, 2013

'उड़ना  है  मुझे छू कर क्षितिज का सुनहरा आकाश,
        चाहिए बस थोड़ी सी जगह पंख फैलाने के लिये……… 

उतरना है पार मुझे चुन कर सागर से मोती ,
        चाहिए बस इक लहर बह जाने के लिये…… 

चमकना  है मुझे पाकर सूरज की लालिमा,
        चाहिए बस इक किरण राह दिखाने के लिये………. 

हाँ! जीना है मुझे लेकर अपनी ही पहचान ,
         चाहिए बस इक पुकार नींद से जगाने के लिये……… '

April 17, 2013

"जूही की कली" 


मै  हूँ जूही की कली............अनदेखी ,अनचाही ,
मुझे माँ की कोख में भी जगह ना मिली,
माँ तुम्हीं ने तो मुझे पुकारा था .........
फिर क्यों रोकी मेरी राह,क्या तुम्हे न थी मेरी चाह। .

मैं हूँ जूही की कली .................अनगढ़,अबला ,
जैसे फूल बिन माली, मै तो बेहया सी पली,
माँ कहाँ थीं तुम तब ..................
छिन  रहा था जब मेरा बचपन,कस  रहे थे मुझ पर बंधन।

मैं हूँ जूही की कली ...............अनसुनी,अनमनी ,
मैं तो सारी उम्र ना खिली
माँ क्यों   ना रखा मेरा मान
बंद थे दरवाज़े ,क्यूँ ना मिला मुझे भी खुला आसमान।

मैं हूँ जूही की कली ................अविचल,अभिमानी
मैं तो हर रंग में ढली
नहीं था बंद आसमान,मुझे ही न था अपने पँखों  का भान,
मुझे भी आता है पँखों  को पसारना,
मैं ही तो हूँ जिसने माँ के गर्भ में ही किया है साजिशों का सामना।
मै  हूँ जूही की कली.................... 



March 27, 2013

ये बात उन दिनों की है जब पड़ोसियों और रिश्तेदारों के घर जाने के लिए लोग होली का इंतजार नहीं किया करते थे,जब घर की छत पर जाने के लिए सोसाइटी के सेक्रेटरी से छत की चाबी नहीं लेनी पड़ती थी ,जब यूँही ठहाके लगाने के लिए राजू श्रीवास्तव के चुटकुलों की जरूरत नहीं होती थी,जब फिल्मे देखने से पहले लोग उसका रिव्यु नहीं पढ़ा करते थे  और जब घड़ी -घड़ी  एक -दूसरे  का हाल जानने के लिए मोबाइल फ़ोन  नहीं थे।ये बात है सन 1986 की,मार्च महीने की सात तारीख -उस दिन ससुराल में मेरी पहली  होली थी।सास,श्वसुर,पति ,देवरऔर मैं।पहली बार मैं होली पर  अपने माता -पिता और भाई-बहनों से दूर नए परिवेश में थी।उस होली मेरे पापा बहुत बीमार थे और अस्पताल में थे।मुझे उनके पास होना चाहिए था ...........पर विवाह के बाद ये मेरी पहली होली थी,सो परम्परानुसार मैं ससुराल में थी।मम्मी के साथ होली  की तैयारियों में लगी तो रही पर मन बार-बार पापा के बारे में सोच कर उदास हो जाता ,बचपन की होली  की यादें मन को और भी बेचैन कर जातीं ............मेरी आँखें भर आतीं ...........चुपचाप आंसू पोछ  कर फिर किसी काम में लग जाती।घर में सब समझ रहे थे कि ,मैं उदास हूँ तो किसी ने होली खेलने की पहल भी नहीं की।खाना बनने के बाद मैं अपने कमरे में बैठी थी,मेरी नज़र एक खाली  बैग पर  पड़ी ,ये वही  बैग था जिसमे मेरे मायके से होली का शगुन आया था। मैंने उसमे यूँही झाँक  कर देखा तो एक कागज़ का टुकड़ा था जिस पर मेरी छोटी बहन ने 'HAPPY-HOLI' और अपना नाम लिखा था।उसे पढ़ते ही मेरा मन एकदम खिल उठा .....मैं कमरे से बाहर  आयी ......सामने देवर जी खड़े थे .........रंग तो दिखा  नहीं ,मेज़ पर  खाने के सामान में मीठी चटनी रखी  थी मैंने चटनी लेकर उनके मुँह पर  लगा दी .........होली की शुरुआत हो चुकी थी ....रंग भी निकल आया,फिर तो जो होली हुई -उसका वर्णन लिख कर करना मुश्किल है।वो होली मेरे जीवन की यादगार होली बन गयी।आज भी उस होली की याद चेहरे पर मुस्कान ले आती  है।अब सोचती हूँ  कि ,उस रोज़ अगर मैंने उस बैग में ना  झाँका होता तो .....................पर  आज जाते-जाते यही कहूँगी कि,'भूल कर सारे मन के मलाल,रंग दो एक-दूजे को लेकर गुलाल' ..............................'.HAPPY-HOLI' .......................PREETI.

February 15, 2013

बचपन में ये गाना हमने खूब सुना .......................
"है ना बोलो-बोलो मम्मी बोलो-बोलो,पापा बोलो-बोलो,पापा को मम्मी से,मम्मी को पापा से प्यार है ,प्यार है।"
पापा-मम्मी बच्चों से प्यार करते हैं ये तो हमें पता था,पर वो एक-दूसरे से भी प्यार करते हैं -ये बात हमें ये गाना सुन कर ही समझ में आयी।बात ये नहीं है कि ,हम आज के बच्चों की तरह चतुर-सयाने नहीं थे ,बात है कि  तब प्यार के प्रदर्शन का या यूँ कहें कि ,प्यार जताने का चलन नहीं था।भारत में जब वैलेंटाइन-डे आया,तब तक मै  दो बच्चों की माँ बन चुकी थी और मेरे बच्चे ये गाना गाने लायक हो चुके थे।
           हाँ  तो   बात प्यार की है तो एक दौर वो था ,जब प्यार का इज़हार होता था ........कॉलेज में फ्री पीरियड में,घर की छतों की मुंडेर पर ,परदे के पीछे, बगीचे में पेड़ के नीचे या किसी भी कोने- अतरे   में।दिल से दिल तक प्यार की बात पहुँचने में अरसा लग जाता,कभी मंजिल मिलती और कभी दिल की बात दिल में ही रह जाती।दिल को बहलाने के लिए रफ़ी,मुकेश के गाने ही काफ़ी होते।एक दौर आज का है ................इन्टरनेट है,स्मार्ट फ़ोन हैं ,चुटकी बजाते ही, दिल की बात अगले दिल तक ! अंजाम चाहे जो हो,आगाज़ तो हो ही जाता है।अब प्यार में पड़ना जरूरत बन गया है या यूँ कहें कि,प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया है।जो भी हो ...... आज मै क्या गलत है और क्या सही,इस चक्कर में नहीं पड़ने वाली हूँ।मैंने वो दौर भी देखा है और ये भी,तो इतना जरूर कहूँगी कि,प्यार तब भी 'दिल दा मामला' था और अब भी है।दुनिया चाहे कितनी बदल जाये,प्यार की तासीर तो वही  रहेगी।
 प्यार करने वालों का प्यार अमर रहे इसी दुआ के साथ जाते-जाते फिर एक गाना ............."सोलह बरस की बाली  उमर  को सलाम,ए  प्यार तेरी पहली नज़र को सलाम"

February 11, 2013

"आया बसंत ,छाया  बसंत ,कण-कण  ने गाया  बसंत।
            झर  गए पीले पात सभी,कोंपलों ने देखा नव-प्रभात अभी,
              सृष्टि  की नवीनता में,होगा मन की मलिनता का अंत।
आया बसंत,छाया बसंत,कण-कण ने गाया बसंत।
               फूली सरसों लो बनी पीताम्बर,आमों के भी बौराए शिखर,
                धरती की इस उदारता में,होगा मानव की कृपणता का अंत।
आया बसंत,छाया बसंत,कण-कण ने गाया बसंत।
                   फूलों से बगिया महकी-तितली बहकी,मधु-रितु के मद में डूबी-कोयल कूकी,
                    प्रकृति की इस सरसता में होगा,जीवन की नीरसता का अंत।
आया बसंत,छाया  बसंत,कण-कण ने गाया बसंत।"



February 06, 2013

सर्दी का पलटवार ...............................बचपन में जब भी फरवरी का महीना आता और हम भाई-बहन स्वेटर उतार कर खेलते तो हमारी दादी कहतीं ,"जरा संभल कर रहो, जाड़ा जाते-जाते दुलत्ती जरूर झाड़ता है"समय बीता हम सब बड़े हो गए ,हमारे बच्चे भी बड़े हो गए ,पर दादी की कहावत तो साथ ही रही। अब शायद हमारे बच्चे इसे दोहराएँ।  ये भूमिका इसलिए बाँधी क्योंकि ,अब जो मै  लिखने जा रही हूँ ,वो एक सत्य घटना है जो मेरे साथ घटी। वर्ष 2007 की फरवरी का दूसरा हफ्ता रहा होगा , जाड़ा  बहुत कम हो गया था और मै  सोच रही थी कि , कुछ स्वेटर अंदर रख देती हूँ। तभी एक दिन अचानक मौसम ने करवट ली और तेज हवाएं व ओलों के साथ बारिश शुरू हो गयी।जाते-जाते सर्दी फिर पूरे लाव-लश्कर के साथ वापस आ धमकी।मैंने मन ही मन दादी की कहावत फिर दोहराई।तब हमारे घर के बगल में पड़े खाली प्लाट में कुछ मजदूर झोपड़ी  बना कर रहते थे। उस रात लगातार हमारे बेडरूम की बाहरी  दीवार से खटर -पटर की आवाज़े  आती रहीं,हम पति-पत्नी की नींद कई बार टूटी। लेकिन सुबह उठ कर हम अपनी-अपनी दिनचर्या में लग गए और रात की बात भूल गए। शाम को ऑफिस से आकर मेरे पति को रात की बात याद आ गयी और वो उधर    देखने चले गए। उन्होंने आकर बताया कि ,झोंपड़ी में मजदूर की पत्नी ने बच्चे को जन्म दिया है और जच्चा-बच्चा  को सर्दी से बचाने  के लिए वो कोई जड़ी-बूटी कूट रहा था। हम दोनों ने तय किया कि ,उन्हें पुराने कम्बल, चादर वगैरह दे देंगे।मैंने सोचा सुबह बेसमेंट में जाकर निकालूँगी और अपने काम में लग गयी।अगली सुबह जब मै  सामान ले कर वहाँ  पहुँची  तो पता चला कि , बच्चा पिछली रात मर गया और उसकी माँ को तेज बुखार है। मै  भारी  मन से सामान  दे कर चली आई।उस रोज़ मुझसे खाना न खाया गया।कितने ही दिन मै  आत्मग्लानि  से भरी रही। फिर मैंने एक सबक लिया कि ,अगर आपको  किसी की मदद करने का अवसर मिले और आप करना भी चाहते हों  तो तुरंत करें। उस समय उठाई गयी थोड़ी सी असुविधा बाद में मिले आत्मसंतोष के आगे कुछ मायने नहीं रखती।

January 11, 2013

'उत्तर-भारत में ठण्ड का कहर '   'उफ़ ये सर्दी'   'क्या जम  जाएगी दिल्ली '  'सन्डे नहीं ठण्ड -डे '.............ये कुछ हेडलाइंस हैं -भारतीय न्यूज़ चैनलों की। वाकई इस बार सर्दी ने सारे रिकार्ड  तोड़ दिए। इस रिकॉर्ड-तोड़ सर्दी में मेरा भी एक रिकॉर्ड टूटा -मै  दस दिनों तक घर से नहीं निकली। कल मेरी एक मित्र के कहने पर, उसके साथ मै  एक बुटीक में गई। वहाँ  का दृश्य बड़ा ही दिलचस्प था ........बड़े से हॉल में सोफे पर दो-तीन सभ्रांत महिलाएं जमी हुई थीं .बीच में मेज़ पर कपड़े फैले हुए थे ,बुटीक मालकिन से उनका किसी ड्रेस की डिजाईन को लेकर डिस्कशन चल रहा था . गर्मागर्म चाय भी सर्व हो रही थी . हॉल के दूसरी ओर  तीन-चार दर्ज़ी, मशीनों पर जुटे हुए थे,मास्टरजी कपड़ा  नापने-जोखने में व्यस्त थे . मेरी मित्र को उन्हीं से काम था, तो वो उधर व्यस्त हो गई। तब तक मुझे भी चाय ऑफर की गयी ,इतने जाड़े में और क्या चाहिए ......सो, चाय की चुस्कियों के साथ मैंने अपने कान वहाँ  चल रही चर्चा की ओर  लगाये .......ध्यान से सुनने पर समझ में आया कि ,एक मोहतरमा के घर में इसी जनवरी में शादी है और वो यहाँ अपने कुत्ते गोल्डी  की जैकेट सिलवाने आई हैं। कुत्ता क्योंकि fawn colour का है (सॉरी!उन्होंने ब्रीड नहीं बताई)इसलिए जैकेट dark-brown colour की ब्रोकेड की बनेगी, जाड़ा  बहुत है,तो नीचे अस्तर लगा कर रुई भरी जाएगी। अस्तर सॉफ्ट होना चाहिए क्योंकि गोल्डी बड़ा ही सेंसिटिव है। हाँ जैकेट में घूँघरू भी लगेंगे।सच!मुझे बड़ा ही रश्क हुआ गोल्डी की किस्मत से ..........मैंने भी एक सलवार-सूट सिलने को दे ही दिया और हम दोनों सहेलियां अपने 'हम-बुटीक गोल्डी की जैकेट'-विषय पर हँसते-बतियाते घर आ गए।कल रात स्वेटर,टोपा -मोजा ,पहने और ऊपर से शाल ओढ़ कर रजाई में बैठे-बैठे मैंने टीवी पर न्यूज़ देखी  -'उत्तर-भारत में सर्दी से 180 लोगों की मौत'. सोचने पर मजबूर हो गयी कि ,सर्दी से कोई इंसान  कैसे मर सकता है और क्या कुत्ते को वाकई इतनी सर्दी लगती है कि  उसे जैकेट पहननी पड़े.......................................

January 01, 2013

..साल 20i5 अतीत की गोद में सरकने को तैयार ,और साल 2016 भविष्य के काँधे पर चढ़ने को बेताब! जाते-जाते साल 2015 को एक नज़र भर कर देखूं तो, घटनाओं और अनुभूतियों की पूरी रील आँखों के आगे खटाखट निकल जाती है .कभी सुभीते से इस रील को आगे-पीछे कर के देखूँगी .आज बात नववर्ष के नव उल्लास की।आने वाला साल अपने साथ क्या लायेगा -ये भेद तो समय के साथ ही खुलेगा .हाँ ! मैंने सोचा है कि ,मै  खुश रहूंगी पर किसी के दुःख का कारण  भी नहीं बनूँगी .वज़न तो कम जरूर करूँगी ,मगर दिल पर भी कोई बोझ नहीं रखूँगी .पूजा-पाठ  करूँगी ,पर कोई वहम नहीं पालूँगी .................................................................................................लिस्ट बहुत लम्बी है ,साल 2017शुरू होने के पहले बताऊँगी  कि ,मिशन 2016 कितना सफल रहा ,अभी तो नववर्ष की ढेरों शुभकामनाओं के साथ चंद  पंक्तियाँ ..............................................

                                                   


"शुभ हो नववर्ष -यही है अभिलाषा ,

                       दूर हो अन्धकार,मन के विकार ,हो मुखरित प्रेम की भाषा .
     शुभ हो  नववर्ष -यही है अभिलाषा 
                      हो सुगम  हर  डगर  ,टूटे ना  सबर ,उपजे हर पल नयी आशा .
  शुभ हो   नववर्ष -यही है अभिलाषा 
                     सुलझे हर उलझन ,नेह-नातों का बंधन ,ना  बदले रिश्तों की परिभाषा 
शुभ हो नववर्ष -यही है अभिलाषा "