February 06, 2013

सर्दी का पलटवार ...............................बचपन में जब भी फरवरी का महीना आता और हम भाई-बहन स्वेटर उतार कर खेलते तो हमारी दादी कहतीं ,"जरा संभल कर रहो, जाड़ा जाते-जाते दुलत्ती जरूर झाड़ता है"समय बीता हम सब बड़े हो गए ,हमारे बच्चे भी बड़े हो गए ,पर दादी की कहावत तो साथ ही रही। अब शायद हमारे बच्चे इसे दोहराएँ।  ये भूमिका इसलिए बाँधी क्योंकि ,अब जो मै  लिखने जा रही हूँ ,वो एक सत्य घटना है जो मेरे साथ घटी। वर्ष 2007 की फरवरी का दूसरा हफ्ता रहा होगा , जाड़ा  बहुत कम हो गया था और मै  सोच रही थी कि , कुछ स्वेटर अंदर रख देती हूँ। तभी एक दिन अचानक मौसम ने करवट ली और तेज हवाएं व ओलों के साथ बारिश शुरू हो गयी।जाते-जाते सर्दी फिर पूरे लाव-लश्कर के साथ वापस आ धमकी।मैंने मन ही मन दादी की कहावत फिर दोहराई।तब हमारे घर के बगल में पड़े खाली प्लाट में कुछ मजदूर झोपड़ी  बना कर रहते थे। उस रात लगातार हमारे बेडरूम की बाहरी  दीवार से खटर -पटर की आवाज़े  आती रहीं,हम पति-पत्नी की नींद कई बार टूटी। लेकिन सुबह उठ कर हम अपनी-अपनी दिनचर्या में लग गए और रात की बात भूल गए। शाम को ऑफिस से आकर मेरे पति को रात की बात याद आ गयी और वो उधर    देखने चले गए। उन्होंने आकर बताया कि ,झोंपड़ी में मजदूर की पत्नी ने बच्चे को जन्म दिया है और जच्चा-बच्चा  को सर्दी से बचाने  के लिए वो कोई जड़ी-बूटी कूट रहा था। हम दोनों ने तय किया कि ,उन्हें पुराने कम्बल, चादर वगैरह दे देंगे।मैंने सोचा सुबह बेसमेंट में जाकर निकालूँगी और अपने काम में लग गयी।अगली सुबह जब मै  सामान ले कर वहाँ  पहुँची  तो पता चला कि , बच्चा पिछली रात मर गया और उसकी माँ को तेज बुखार है। मै  भारी  मन से सामान  दे कर चली आई।उस रोज़ मुझसे खाना न खाया गया।कितने ही दिन मै  आत्मग्लानि  से भरी रही। फिर मैंने एक सबक लिया कि ,अगर आपको  किसी की मदद करने का अवसर मिले और आप करना भी चाहते हों  तो तुरंत करें। उस समय उठाई गयी थोड़ी सी असुविधा बाद में मिले आत्मसंतोष के आगे कुछ मायने नहीं रखती।

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