September 17, 2013

लघु- कथा   -"बुरी लत"   -जगदीश बाबू  ,अपने बेटे -बहू  ,अमित ,नीता और पोते गट्टू के साथ ही रहते हैं। अपनी पेंशन में से कुछ पैसे बचा कर बाकी ,बहू  के हाथ में ही रख देते हैं।  गट्टू को दादाजी के साथ ,खेलना और बातें करना बहुत अच्छा  लगता है पर माँ नीता उसे हमेशा किसी न किसी बहाने से दादाजी के पास जाने से रोकती है। उसका कहना है कि ,पिताजी को पान मसाला खाने की बुरी लत है और गट्टू को उनके साथ नहीं रहना चाहिए। दोपहर में जब वो सोती है तब भी गट्टू अपने दादाजी से दूर ही  रहे ,इसके लिए वह गट्टू को दो घंटे प्ले -स्कूल में भेजना चाहती है। जगदीश बाबू  ने बेटे अमित से बात की है कि , वो दो घंटे गट्टू की अच्छी देखभाल कर लेंगे ,पैसे भी बचेंगे और उनका मन भी लगा रहेगा।  पति और गट्टू की जिद के आगे नीता की एक न चली।
                                 एक महीने में ही गट्टू ने दादाजी से बहुत कुछ सीख लिया है और खेल-खेल में अच्छे संस्कारों व् जीवन मूल्यों का भी निरूपण हो रहा है। इस बार जगदीश बाबू  ने पेंशन बहू  के हाथ में रखी  तो नीता ने कटाक्ष किया ,"क्यों ?इस बार अपनी बुरी लत के लिए पैसे नहीं रखेंगे ?"जगदीश बाबू  ने मुस्करा कर कहा "बहू  वो लत तो छूट गयी और अब जो लत लगी है…. उसका कोई मोल नहीं है,वो है मुझे मिला मेरे पोते का साथ ……………… ."

September 12, 2013





"मिटने  की तैयारी है ,झूठ सत्य पर भारी है।
बिक रहा ईमान यहाँ ,अब हक़ पर सेंधमारी है ,
अब जागो ,आँखें खोलो ,चुप न रहो ,मुँह  से बोलो ,
बहुत सह लिया  हमने ,अब गद्दारों की बारी है "




September 06, 2013

हाइकू लिखने का प्रथम प्रयास………

१ -'झरते पात
      वसंत आगमन
       नव सृजन '

 २ -'तपती रेत
     उबलता सागर
      ग्रीष्म प्रताप '

३-   'बरखा वृष्टि
       नाचे मन मयूर
       पियु की आस '

४-   'ओस की बूँद
        पूर्ण चन्द्र शरद
         अमृत धरा '

५-  ' कंपित  शिरा
       ठिठुरता सूरज
        शिशिर भोर'
        

September 04, 2013

आज पुस्तकों की बात - ,  मैं अपनी सर्वाधिक प्रिय पुस्तकों में से एक "क्या भूलूँ क्या याद करूँ " का ज़िक्र करना चाहूँगी , डॉ. हरिवंश राय  बच्चन की आत्मकथा का प्रथम भाग। यूँ  तो मैंने उनकी आत्मकथा के चारों भाग पढ़े हैं ,परन्तु,प्रथम भाग को मैं जब भी पढ़ती हूँ ,मुझे हमेशा उतना ही मज़ा आता है।  इस पुस्तक में हरिवंश जी ने अपने शुरुआती जीवन को तो बेबाकी से खोल कर रखा ही है ,साथ ही इसे जीवन के कुछ मूलभूत सिध्दांतों ,व्यावहारिक ज्ञान और एक लेखक और कवि -मन की स्वाभाविक उहा-पोह से भी सजाया है।मैं तो इस पुस्तक की मुरीद हूँ ही, आज आप सबके लिए इसी पुस्तक का एक छोटा सा अंश सांझा कर रही हूँ ,आशा है आप सबको भी पसंद आएगा …………
                                   पेज संख्या -५०
                                "आधी रात के बाद रात की ऐसी घडी आती है ,जब तारों की पलकों पर भी खुमारी छा  जाती है,सदा चलती रहने वाली हवा एकदम थम जाती है ,न एक डाली हिलती है ,न एक पत्ता ,न एक तिनका डोलता है, न एक किनका खिसकता है। उस समय दुसह से दुसह पीड़ा शांत हो जाती है ,कड़ी से कड़ी चोट का दर्द जाता रहता है ,बड़ी से बड़ी चिंता  का पंजा ढीला हो जाता है ,बेचैन से बेचैन मरीज़ को चैन आ जाता है। दमे के रोगी की भी आँख लग जाती है ,विरहिन के आँसू  की लड़ी भी टूट जाती है और महाकाली रात महाकाल की छाती पर सिर  धर कर एक झपकी ले लेती है -ऐसी ही घडी का ध्यान कर ,सप्तशती-कार ने लिखा होगा--"या देवी सर्वभूतेषु  निन्द्रारुपेंड संस्थिता ,नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः "
    तब मैंने कब सोचा था कि ,अवसाद और उन्माद की ऐसी घड़ियों को भोगने का जोग मेरी आँखें भी लिखा कर लायी है.………………. "
                                           

                                              "सुन रहा हूँ शान्ति इतनी,है टपकती बूँद जितनी
                                                ओस की ,जिनसे द्रुमों का गात ,रात भिगो गयी है
                                                               रात आधी  हो गयी है।
                                                इस समय हिलती नहीं है एक डाली ,
                                                  इस समय हिलता नहीं है एक पत्ता।
                                                  यदि प्रणय जागा न होता इह निशा में
                                                  सुप्त होती विश्व की सम्पूर्ण सत्ता। "

September 02, 2013

लघु कथा -"कशमकश"        दिवाकर एक ईमानदार प्रशासनिक अधिकारी है ,अपनी दो साल की नौकरी में एक भी बार उसने रिश्वत नहीं ली है। वह अपनी छोटी सी दुनिया में खुश है ,पत्नी और एक प्यारा सा बेटा। दिवाकर के पिता एक शिक्षक थे और उन्होंने दिवाकर और उसके भाई-बहनों को कम आमदनी में पाल-पोस कर बड़ा किया था व् अच्छे संस्कारों की पूँजी सौंपी थी। पर जब से दिवाकर इस नए शहर में आया है ,उसके ऊपर चारों ओर  से गलत कामों को स्वीकृति देने का बहुत दबाव है ,कल ही एक खनन माफिया रणजीत ने  उसे एक करोड़ की रिश्वत का प्रस्ताव दिया है,उस पर कोई आँच  नहीं आएगी -ऐसा वायदा भी किया है। इतनी बड़ी रकम सुन कर दिवाकर के मन में भी कशमकश हो रही है। रणजीत दो -चार दिनों में फिर आने को कह गया है।
                                                     आज दिवाकर के पिता की बरसी है ,सब भाई-बहन  पैतृक  आवास पर एकत्र हुए हैं ,दिवाकर चुपचाप  छत पर उस कमरे में आ गया है ,जहाँ उसके पिता अध्यन करते थे। उसकी नज़र उस बंद खिड़की पर गयी जो पहले हमेशा खुली रहती थी , उसे अच्छी तरह याद है ,जब पिता जी उसे जीवन की व्यावहारिक बातें या अच्छे जीवन मूल्यों की बातें बताते थे ,तब उसका आधा ध्यान खिड़की से बाहर  मैदान में खेल रहे बच्चों की ओर  रहता था,दिवाकर ने झट आगे बढ़ कर खिड़की खोल दी ………इतने सालों में खिड़की के बाहर  का दृश्य बदल गया है ,खाली  मैदान में पूरी एक बस्ती बस चुकी है ,दिवाकर खिड़की के सामने खड़ा है और  उसे अपने पिता की आवाज़ सुनाई  दे रही है…… 'जीवन में कभी भी लालच में फँस  कर अपने  उसूलों से समझौता मत करना,ये कभी मत भूलना ,जो सत्य के मार्ग पर चलता है अंत में जीत उसी की होती है…… 'दिवाकर को अपनी कशमकश का जवाब और अपना लक्ष्य  मिल गया साथ ही  ये  विश्वास भी  दृढ हुआ कि , बचपन में अनजाने में जो संस्कार पड़ जाते हैं ,वे कभी छूटते नहीं।