September 02, 2013

लघु कथा -"कशमकश"        दिवाकर एक ईमानदार प्रशासनिक अधिकारी है ,अपनी दो साल की नौकरी में एक भी बार उसने रिश्वत नहीं ली है। वह अपनी छोटी सी दुनिया में खुश है ,पत्नी और एक प्यारा सा बेटा। दिवाकर के पिता एक शिक्षक थे और उन्होंने दिवाकर और उसके भाई-बहनों को कम आमदनी में पाल-पोस कर बड़ा किया था व् अच्छे संस्कारों की पूँजी सौंपी थी। पर जब से दिवाकर इस नए शहर में आया है ,उसके ऊपर चारों ओर  से गलत कामों को स्वीकृति देने का बहुत दबाव है ,कल ही एक खनन माफिया रणजीत ने  उसे एक करोड़ की रिश्वत का प्रस्ताव दिया है,उस पर कोई आँच  नहीं आएगी -ऐसा वायदा भी किया है। इतनी बड़ी रकम सुन कर दिवाकर के मन में भी कशमकश हो रही है। रणजीत दो -चार दिनों में फिर आने को कह गया है।
                                                     आज दिवाकर के पिता की बरसी है ,सब भाई-बहन  पैतृक  आवास पर एकत्र हुए हैं ,दिवाकर चुपचाप  छत पर उस कमरे में आ गया है ,जहाँ उसके पिता अध्यन करते थे। उसकी नज़र उस बंद खिड़की पर गयी जो पहले हमेशा खुली रहती थी , उसे अच्छी तरह याद है ,जब पिता जी उसे जीवन की व्यावहारिक बातें या अच्छे जीवन मूल्यों की बातें बताते थे ,तब उसका आधा ध्यान खिड़की से बाहर  मैदान में खेल रहे बच्चों की ओर  रहता था,दिवाकर ने झट आगे बढ़ कर खिड़की खोल दी ………इतने सालों में खिड़की के बाहर  का दृश्य बदल गया है ,खाली  मैदान में पूरी एक बस्ती बस चुकी है ,दिवाकर खिड़की के सामने खड़ा है और  उसे अपने पिता की आवाज़ सुनाई  दे रही है…… 'जीवन में कभी भी लालच में फँस  कर अपने  उसूलों से समझौता मत करना,ये कभी मत भूलना ,जो सत्य के मार्ग पर चलता है अंत में जीत उसी की होती है…… 'दिवाकर को अपनी कशमकश का जवाब और अपना लक्ष्य  मिल गया साथ ही  ये  विश्वास भी  दृढ हुआ कि , बचपन में अनजाने में जो संस्कार पड़ जाते हैं ,वे कभी छूटते नहीं। 

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