आज पुस्तकों की बात - , मैं अपनी सर्वाधिक प्रिय पुस्तकों में से एक "क्या भूलूँ क्या याद करूँ " का ज़िक्र करना चाहूँगी , डॉ. हरिवंश राय बच्चन की आत्मकथा का प्रथम भाग। यूँ तो मैंने उनकी आत्मकथा के चारों भाग पढ़े हैं ,परन्तु,प्रथम भाग को मैं जब भी पढ़ती हूँ ,मुझे हमेशा उतना ही मज़ा आता है। इस पुस्तक में हरिवंश जी ने अपने शुरुआती जीवन को तो बेबाकी से खोल कर रखा ही है ,साथ ही इसे जीवन के कुछ मूलभूत सिध्दांतों ,व्यावहारिक ज्ञान और एक लेखक और कवि -मन की स्वाभाविक उहा-पोह से भी सजाया है।मैं तो इस पुस्तक की मुरीद हूँ ही, आज आप सबके लिए इसी पुस्तक का एक छोटा सा अंश सांझा कर रही हूँ ,आशा है आप सबको भी पसंद आएगा …………
पेज संख्या -५०
"आधी रात के बाद रात की ऐसी घडी आती है ,जब तारों की पलकों पर भी खुमारी छा जाती है,सदा चलती रहने वाली हवा एकदम थम जाती है ,न एक डाली हिलती है ,न एक पत्ता ,न एक तिनका डोलता है, न एक किनका खिसकता है। उस समय दुसह से दुसह पीड़ा शांत हो जाती है ,कड़ी से कड़ी चोट का दर्द जाता रहता है ,बड़ी से बड़ी चिंता का पंजा ढीला हो जाता है ,बेचैन से बेचैन मरीज़ को चैन आ जाता है। दमे के रोगी की भी आँख लग जाती है ,विरहिन के आँसू की लड़ी भी टूट जाती है और महाकाली रात महाकाल की छाती पर सिर धर कर एक झपकी ले लेती है -ऐसी ही घडी का ध्यान कर ,सप्तशती-कार ने लिखा होगा--"या देवी सर्वभूतेषु निन्द्रारुपेंड संस्थिता ,नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः "
तब मैंने कब सोचा था कि ,अवसाद और उन्माद की ऐसी घड़ियों को भोगने का जोग मेरी आँखें भी लिखा कर लायी है.………………. "
"सुन रहा हूँ शान्ति इतनी,है टपकती बूँद जितनी
ओस की ,जिनसे द्रुमों का गात ,रात भिगो गयी है
रात आधी हो गयी है।
इस समय हिलती नहीं है एक डाली ,
इस समय हिलता नहीं है एक पत्ता।
यदि प्रणय जागा न होता इह निशा में
सुप्त होती विश्व की सम्पूर्ण सत्ता। "
पेज संख्या -५०
"आधी रात के बाद रात की ऐसी घडी आती है ,जब तारों की पलकों पर भी खुमारी छा जाती है,सदा चलती रहने वाली हवा एकदम थम जाती है ,न एक डाली हिलती है ,न एक पत्ता ,न एक तिनका डोलता है, न एक किनका खिसकता है। उस समय दुसह से दुसह पीड़ा शांत हो जाती है ,कड़ी से कड़ी चोट का दर्द जाता रहता है ,बड़ी से बड़ी चिंता का पंजा ढीला हो जाता है ,बेचैन से बेचैन मरीज़ को चैन आ जाता है। दमे के रोगी की भी आँख लग जाती है ,विरहिन के आँसू की लड़ी भी टूट जाती है और महाकाली रात महाकाल की छाती पर सिर धर कर एक झपकी ले लेती है -ऐसी ही घडी का ध्यान कर ,सप्तशती-कार ने लिखा होगा--"या देवी सर्वभूतेषु निन्द्रारुपेंड संस्थिता ,नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः "
तब मैंने कब सोचा था कि ,अवसाद और उन्माद की ऐसी घड़ियों को भोगने का जोग मेरी आँखें भी लिखा कर लायी है.………………. "
"सुन रहा हूँ शान्ति इतनी,है टपकती बूँद जितनी
ओस की ,जिनसे द्रुमों का गात ,रात भिगो गयी है
रात आधी हो गयी है।
इस समय हिलती नहीं है एक डाली ,
इस समय हिलता नहीं है एक पत्ता।
यदि प्रणय जागा न होता इह निशा में
सुप्त होती विश्व की सम्पूर्ण सत्ता। "
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