March 27, 2013

ये बात उन दिनों की है जब पड़ोसियों और रिश्तेदारों के घर जाने के लिए लोग होली का इंतजार नहीं किया करते थे,जब घर की छत पर जाने के लिए सोसाइटी के सेक्रेटरी से छत की चाबी नहीं लेनी पड़ती थी ,जब यूँही ठहाके लगाने के लिए राजू श्रीवास्तव के चुटकुलों की जरूरत नहीं होती थी,जब फिल्मे देखने से पहले लोग उसका रिव्यु नहीं पढ़ा करते थे  और जब घड़ी -घड़ी  एक -दूसरे  का हाल जानने के लिए मोबाइल फ़ोन  नहीं थे।ये बात है सन 1986 की,मार्च महीने की सात तारीख -उस दिन ससुराल में मेरी पहली  होली थी।सास,श्वसुर,पति ,देवरऔर मैं।पहली बार मैं होली पर  अपने माता -पिता और भाई-बहनों से दूर नए परिवेश में थी।उस होली मेरे पापा बहुत बीमार थे और अस्पताल में थे।मुझे उनके पास होना चाहिए था ...........पर विवाह के बाद ये मेरी पहली होली थी,सो परम्परानुसार मैं ससुराल में थी।मम्मी के साथ होली  की तैयारियों में लगी तो रही पर मन बार-बार पापा के बारे में सोच कर उदास हो जाता ,बचपन की होली  की यादें मन को और भी बेचैन कर जातीं ............मेरी आँखें भर आतीं ...........चुपचाप आंसू पोछ  कर फिर किसी काम में लग जाती।घर में सब समझ रहे थे कि ,मैं उदास हूँ तो किसी ने होली खेलने की पहल भी नहीं की।खाना बनने के बाद मैं अपने कमरे में बैठी थी,मेरी नज़र एक खाली  बैग पर  पड़ी ,ये वही  बैग था जिसमे मेरे मायके से होली का शगुन आया था। मैंने उसमे यूँही झाँक  कर देखा तो एक कागज़ का टुकड़ा था जिस पर मेरी छोटी बहन ने 'HAPPY-HOLI' और अपना नाम लिखा था।उसे पढ़ते ही मेरा मन एकदम खिल उठा .....मैं कमरे से बाहर  आयी ......सामने देवर जी खड़े थे .........रंग तो दिखा  नहीं ,मेज़ पर  खाने के सामान में मीठी चटनी रखी  थी मैंने चटनी लेकर उनके मुँह पर  लगा दी .........होली की शुरुआत हो चुकी थी ....रंग भी निकल आया,फिर तो जो होली हुई -उसका वर्णन लिख कर करना मुश्किल है।वो होली मेरे जीवन की यादगार होली बन गयी।आज भी उस होली की याद चेहरे पर मुस्कान ले आती  है।अब सोचती हूँ  कि ,उस रोज़ अगर मैंने उस बैग में ना  झाँका होता तो .....................पर  आज जाते-जाते यही कहूँगी कि,'भूल कर सारे मन के मलाल,रंग दो एक-दूजे को लेकर गुलाल' ..............................'.HAPPY-HOLI' .......................PREETI.