October 20, 2014

आज चिठ्ठी -पत्री  की बात………इस दीवाली अपनी आलमारी  ठीक करते समय पुरानी चिठ्ठियों का थैला हाथ लग  गया ,दोपहर से शाम हो गयी पुराने खतों को पढ़ते -पढ़ते। कितनी भूली यादें फिर से ताज़ा हो गयीं। सोचने बैठूँ  तो ख़त  की दुनिया से मेरा प्रथम परिचय मेरी दादी ने कराया। वो मुझसे चाचा और बुआ के लिए खत लिखवाती। वो बोलती जातीं और मैं लिखती, बड़ा मज़ा आता। मैं हर चौथे दिन उनके पीछे पड़ती चलो अम्मा खत लिखें। वो  कहतीं -अरे पहले जवाब तो आने दो। जवाब में खत आता तो वो भी हम ही पढ़ते। खत के अंत में अपने लिए प्यार भी मिलता। कभी-कभी मैं कहती -अरे अम्मा तुमने ये बात तो चाचा के खत में लिखवाई ही नहीं ,तब वो समझातीं -अरे नहीं बेटा  ये बात खत में लिखने वाली थोड़ी  है। इस तरह हमें ख़तो -किताबत का इल्म हुआ। स्कूल के दिनों में जब कभी स्कूल से अनुपस्थित होना पड़ता तो अपनी छोटी बहन का इंतज़ार करती ,वो मेरी सहेलियों की चिठ्ठी लेकर आती। उस दिन क्या पढाई हुई और क्या होमवर्क मिला -ये हमें उस खत से ही पता चलता तब फ़ोन तो था नहीं। पापा का ट्रान्सफर  होने पर दूसरे  शहर जाकर पुरानी सहेलियों को खत लिखे जाते ,लिखते समय आँखे भर आती और जवाब मिलता तब भी रोना छूट जाता। कितने ख़त  चचेरी ,ममेरी बहनों को भी लिखे। सबसे दिलचस्प होता था ख़त  के जवाब का इंतज़ार। डाकिये को घर की ओर  आता देख कर ही धड़कने बढ़ जाती ,हम भाई -बहनों में चिठ्ठी की छीनाझपटी भी खूब होती और कभी-कभी चिठ्ठी बिना पढ़े ही फट जाती ,तब हम उसे जोड़ कर पढ़ते। मुझे याद है ,जब मेरी शादी तय हुई -मैं और मेरे होने वाले पति एक ही शहर में थे ,पर फ़ोन की सुविधा नहीं थी और मिलने की आज्ञा नहीं थी। शादी से पहले के ६ महीने हम दोनों ने एक-दूसरे  को बहुत से ख़त  लिखे। आज भी जब उन्हें पढ़ती हूँ तो बहुत अच्छा लगता है। फिर शादी के बाद माँ -पापा से दूर होने पर उनके खतों का इंतज़ार रहता। कहने का तात्पर्य यह कि  ,चिठ्ठी -पत्री  का हमारे जीवन में बहुत अहम स्थान था। कितने दिनों तक कोई बात सोच कर ख़त  में लिखी जाती थी। आज की तरह थोड़ी कि , जो मन में आया तुरंत वाट्सएप्प  पर लिख मारा। संचार क्रान्ति ने हमारा जीवन ही बदल दिया है। मैं भी सोचूँ तो मैंने भी आखिरी बार कब -किसको ख़त  लिखा था ,याद नहीं। ये तो अच्छा है कि , अब हमें बाहर  रह रहे अपने बच्चों का और अपने वृद्ध माता-पिता का हाल जानने के लिए कोई इंतज़ार  नहीं करना पड़ता। अब सब बस एक फ़ोन -कॉल  की दूरी पर ही है। पर खतों की बात ही अलग थी ,एक ही ख़त  में पूरे घर के लोगों के लिए कुछ ना  कुछ अवश्य रहता था ,चाहे सादर प्रणाम और प्यार स्नेह ही क्यों ना  हो। 

October 09, 2014



"मधुर चाँदनी  से बन आये थे तुम जीवन में,
रस  प्रेम-सुधा बन छाए थे तन-मन में।
कितने  पूनम, फिर कितनी अमावस,
मिल कर भोगे ,जीवन के सब नवरस।
आये  वसन्त, फिर  गए जो पतझड़ ,
वो गूँज हँसी की, आँसू  की हर लड़।
बन गयी हैं थाती, जीवन की अब,
जो कहीं थीं बातें तुमने तब।
जीवन की साँध्य बेला  में आज,
अब जाकर जाना ये राज।
बोते हैं जो हम जीवन में कल,
जीते आज उसी को पल-पल।
लो उम्र इस बंधन की, सुनहरी सूर्य-किरण सी हो गयी,
कुछ बातें तेरी-मेरी ,फिर भी क्यूँ अनकही सी रह गयीं। "
                                         
               




October 01, 2014

आज जब  मैंने अपने यहाँ सफाई करने वाले लड़के से कहा कि ,"तुम्हारी  झाड़ू ख़राब हो गयी है ,नयी ले आओ "तो वह बोला ,"मैडम २ अक्टूबर के बाद मँगाइएगा ,आजकल झाड़ू महंगी बिक रही है। "मैं अपनी हँसी  रोक पाती ,इससे पहले ही वह फिर बोला ,"मैडम कल नहीं आऊँगा। कल पार्क में डबल ड्यूटी करनी है ,परसों साहब लोग झाड़ू लगाने आ रहे हैं तो कल पार्क चकाचक साफ़ किया जायेगा। "(दरअसल वो एक स्थानीय पार्क में सफाई कर्मी है और पार्ट-टाइम हमारे घर में भी काम करता है ,जिससे उसे कुछ अतिरिक्त आमदनी हो जाती है।) शाम को पति देव भी भुनभुनाते हुए घर में घुसे -"क्या यार दो अक्टूबर को भी ऑफिस जाना है। " मैंने तंज़ कसा  -अच्छा झाड़ू लगाने ! वो तुनके -हुंह ! हम क्यों लगाएंगे  झाड़ू ,जो १५ अगस्त और २६ जनवरी को गुब्बारे और कबूतर उड़ाते हैं वही लोग  झाड़ू भी लगाएंगे। पर जाना तो पड़ेगा ही। मुझे अपनी दादी की एक कहावत याद आई -एक जना  झाड़ू लगाये तो एक उसकी कमर पकडे। मोदी जी ने झाड़ू पकड़ने का संकल्प क्या लिया ,पूरा देश  झाड़ूमय  हो गया। लक -दक  सूट -बूट झाड़ कर ,झाड़ू फिरा कर ,हाथ झाड़ कर मीडिया को बाइट देने की होड़ मची है। प्रधानमन्त्री से लेकर मंत्री ,नेता अफसर सभी नयी नवेली झाड़ू हाथ में लेकर निकलेंगे और फिर कैमरे  की ज़द के बाहर  इन झाड़ूओं का अम्बार औने -पौने बिक जायेगा।  नयी झाड़ू तो मैं २ अक्टूबर  के बाद ही  खरीदूँगी। पर मज़ाक से इतर एक बात विचारणीय है कि  ,साल में एक दिन स्वच्छता अभियान अपनी प्रतीकात्मकता को साल  के अन्य ३६४ दिनों में भी बनाये रखे तो कुछ बात बने। दरअसल स्वच्छता अभियान से नहीं हमारी सोच में बदलाव से होगी। बड़ी-बड़ी कोठियों में मार्बल फर्श की स्कर्टिंग तक को नौकरों से रगड़वाने वाली सभ्रांत महिलाये ये सोचना भी नहीं चाहतीं कि ,उनके घर का कूड़ा नौकर कहाँ फेंक रहा है। हर गली ,नुक्कड़,चौराहों पर जमा कूड़ा ये तो बताता है कि  ,हमारे घर बहुत साफ़ हैं। पर यही कूड़ा नालियों में फंस कर सीवर जाम करता है और फिर सीवर भी सड़क पर बहता है।'मन की बात' लिखते समय  मैं गूगल बाबा की मदद  कम  ही लेती हूँ ,पर मेरे सीमित ज्ञान के हिसाब से भी कम से कम  हर १. ५ किलोमीटर पर एक सफाईकर्मी तो होना ही चाहिए। जब से सफाई का काम नगरमहापालिका द्वारा ठेके पर दिया जाने लगा ,तबसे सफाई व्यवस्था और  भी चरमरा गयी है। कर्मचारियों की कमी तो है ही। सफाई के आधुनिक उपकरण और सीवर साफ़ करने वाली मशीने भी स्टोर में पड़ी ज़ंग खाती हैं। शराब पीकर सफाईकर्मी सीवर में घुस कर सफाई करता है। आये दिन सफाई कर्मी हादसों का शिकार होते हैं ,जिसका कोई मुआवज़ा सरकार द्वारा नहीं दिया जाता। सफाई के काम को एक वर्ग-विशेष से जोड़ कर देखना -यह भी शायद हमारे देश की ही विशिष्टता है। मोदी जी की ये सांकेतिक पहल अच्छी है। इस अभियान के लोगो में गांधी जी के चश्मे का प्रयोग किया गया है। पर फैशन के इस दौर में गाँधी  का चश्मा आउटडेटिड है और फिर चश्मा चाहे कोई भी हो अगर उसके पीछे की आँखे बंद होंगी तो अपने घर से बाहर  की गंदगी हमें उतनी देर ही उद्वेलित करेगी ,जितनी देर जेब से रुमाल निकाल कर नाक पर रखने में लगती है। प्रधानमंत्रीजी और उनके अमले को यह समझना ज़रूरी है कि  ,देश ,प्रदेश ,शहर ,गाँव ,गली नुक्कड़ हर जगह कूड़ा -प्रबंधन एक गंभीर समस्या है ,जिसे बहुत ही व्यवस्थित और वैज्ञानिक ढँग  से दूर करने की पहल होनी चाहिए। निश्चय ही कोई भी व्यवस्था अपने उद्देश्य में तभी सफल होती है जब कर्तव्यों का निर्वहन ईमानदारी से हो। तो मेरे विचार से मोदी जी की झाड़ू पहले भ्रष्टाचार पर ही चलनी चाहिए। सड़के खुद-ब  -खुद साफ़ हो जाएंगी।