बचपन में घर के आँगन या छत पर लेटे-लेटे तारों से भरे आकाश को देखना मेरा प्रिय शगल था.अक्सर मै मन में जो भी शब्द आता उसे तारों को जोड़-जोड़ कर बनाती और फिर आसमान की स्लेट पर उसे पढ़ती .पर वो मेरा लिखा मेरे लिए ही होता. कोई और भला मेरी नज़र से देखता भी कैसे.....जरा सी नज़र चूकी और शब्द गायब हो जाता और मैं फिर से नया शब्द बनाने में जुट जाती. इसी में कब नींद आ जाती पता ही न चलता.आज के बच्चों के लिए खुला आसमान कहाँ है?शायद अब घरों की छतों से तारे भी उतने चमकीले नहीं दिखते.मैं भी सोचूं तो लगता है एक अरसा बीत गया तारों से रूबरू हुए. आज जब मैं पहली बार ब्लॉग लिखने बैठी हूँ तो ना जाने क्यों वही बचपन वाला रोमांच हो रहा है ........लग रहा है ये तो ऐसा आसमान है जहाँ मेरा लिखा कोई भी पढ़ सकता है. कैसा लिखूंगी ,कितना लिखूंगी ......ये तो वक्त ही बतायेगा.पर जब भी लिखूंगी मन की बात ही जगजाहिर होगी. आज बस एक कविता...........................................
"बचपन की शीतल चांदनी रातों में ,अनगढ़ खेल और बातों-बातों में.
जब-जब टूटा तारा कोई गगन में,तब-तब पाला था इक सपना मन में.
उम्र की जोड़ में,दुनिया की होड़ में,
जीवन की आपाधापी और दौड़ में,
जीवन की आपाधापी और दौड़ में,
कहाँ मिली फुरसत और कब ये सोचा क़ि सपने भी कुछ कहते हैं कुलबुलाते और सहते हैं.
सपने कभी नहीं मरते,हम ही उन्हें भूल भौतिकता में खोते हैं.
जीवन की हर विफलता में,मन की हर दुर्बलता में वे पलते और जीवित रहते हैं."
बहुत अच्छा लिखा है मामी जी . पढ़कर अपने बचपन के दिन याद आ गए
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