May 01, 2012

                                                 " मन की बात "


"पिछले दिनों घर में पुताई के बाद परदे लगे तो एक खिड़की के परदे बहस का मुद्दा बन गए . हुआ ये कि उस खिड़की के परदों के बीच पहले थोड़ी-थोड़ी जगह रहती थी ,जो अब नहीं थी. मै अड़ी थी कि परदे वही हैं  अब बड़े कैसे हो गए -मुझे नहीं पता. कुछ देर मगज मारने के बाद मैंने सोचा -जहाँ चारों ओर बेपर्दगी की होड़ मची है ,वहां मेरे घर के परदे तो बड़े ही हुए हैं ...मै क्यूँ  परेशान हो रही हूँ . अगली सुबह ध्यान से देखा तो समझ में आया कि  परदों में छल्ले कुछ ज्यादा पड़ गए हैं और उनके फैलने की गुंजाइश कुछ बढ़ गयी है, इसीलिए अब उनके बीच जगह नहीं रह गयी है. इस तरह ये मुद्दा तो ख़त्म हुआ ,पर मेरे सोच-विचार की सुई 'गुंजाइश' पर अटक गयी.सोचने लगी भगवान् ने ह्रदय की संरचना ऐसी बनाई कि वो रक्त के अधिक-कम दवाब को सह सके. उसमे कोई खराबी हो तो डाक्टरों ने उपाय ढूँढ लिया है -एक छल्ला 'गुंजाइश' का (angioplasty/stenting) मगर रिश्तों को निभाने के लिए जो गुंजाइश दिलों में चाहिए उसका क्या? पहले संयुक्त परिवारों में  घर छोटे होते थे ,आमदनी भी कम-कम  होती थी ,पर दिलों में गुंजाइश की कोई कमी नहीं थी.हर कोई एक दूसरे की अच्छाई -बुराई के साथ स्वयं को समायोजित कर ही लेता था. आज बड़ी-बड़ी कोठियां हैं , ऊँचे-ऊँचे ओहदे हैं ,पर दिल में गुंजाइश का टोटा है. अब तो चलती है जोर-आज़माइश, जहाँ जोर नहीं चलता वहीँ हम झुकते हैं, सहते हैं, दबते हैं. मुझे अपनी ही लिखी एक कविता की दो लाइने याद आ रही हैं..................
"यूँ तो बहुत सहते हैं हम दुनिया के सितम , है गुंजाइश अपनों के लिए ही  कम .
                  चुनते सब कुछ नया जीवन में, बस शिकवे ही पुराने ढ़ोते हैं"
         बात छल्लों और परदे से शुरू हुई थी तो, अगर एक ,सिर्फ एक छल्ला 'क्षमा' का हम अपने हृदय में धारण करें तो बहुत सी शिकायतों पर पर्दा पड़ जाएगा ,और उसकी आड़ में कुछ रिश्ते आसानी से निभ जायेंगे."
                                                                                                                         प्रीति  श्रीवास्तव 

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