अभय-दान
जगदीश बाबू पिछले बीस दिनों से कोमा में हैं। एक -एक करके शरीर के सभी अँग जवाब दे रहे हैं ,अब तो डॉक्टरों ने भी उम्मीद छोड़ दी है। पत्नी निर्मला उनके सिरहाने ही बैठी रहती हैं। शहर का बड़ा अस्पताल ,नामी डॉक्टरों की टीम ,तीमारदारी के लिए होड़ लगाते लोग.……………… आखिर जगदीश बाबू का बेटा एक वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी जो था। बेटा प्रफुल्ल और बहू नीता बेचैनी से बार -बार कमरे का चक्कर लगा कर चले जाते। निर्मला उनके मनोभावों को साफ़ -साफ़ पढ़ सकती है। बाहर कोई प्रफुल्ल को सलाह दे रहा है -"साहब गौ -दान करा दीजिये ,प्राण अटके हैं पिताजी के आराम से चले जाएंगे " किसी ने पंडित से संकल्प करने की राय दी। निर्मला ने नज़र भर ,जगदीश बाबू को देखा और ह्रदय पर पत्थर रख कर पति के कान में कहा "सुनो जी आप आराम से जाओ ,मैं आपके बिना रह लूंगी "जगदीश बाबू मानो यही सुनना चाहते थे,निर्मला ने उन्हें नए सफर के लिए अभय-दान दे दिया था। कुछ ही पलों में उन्होंने शरीर त्याग दिया।
उनका हाथ अब भी निर्मला के हाथ में है। कमरे में हलचल बढ़ गयी है और निर्मला के ह्रदय में भी।
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