April 07, 2014

             "विस्मृति"


" आजकल भूलने लगी हूँ ,मैं बहुत …… 
 बत्ती जला कर बुझाना या खुला दरवाज़ा उढ़काना ,
 ढूँढती  फिरती हूँ चीज़ें रख कर ,इधर-उधर। 
 अक्सर भूल जाती हूँ किसी के जन्मदिन की  ताऱीख ,
 याद ही नहीं रहता कल फ्रिज़ में रखा था क्या ,
 भूलती हूँ खाना दवा और उठाना आँगन से कपडे। 
 सोचती हूँ ये बढ़ती उम्र का असर है या पुराना ही कोई सिलसिला ,
 क्योंकि भूली तो पहले भी बहुत कुछ थी................ 
 छोड़ कर भुलाया बाबुल का अँगना  और रिवाज़ ,
 भूली थी अपना बचपना और दिल की  आवाज़। 
  भूलती ही आयी हूँ हर कड़वी बात और अपने जज़्बात ,
  फूलों की  महक में भुला कर काँटों की  चुभन ,
 याद ही नहीं कितना अनसुना किया है मन। 
 बिसरा कर सुध घर की  चाहरदीवारी में भूल ही गयी थी खुद को ,
 कहाँ था याद कि ,एक दुनिया देहरी के उस पार भी है ,
 और सपने भी यहीँ बैठे हैं छत की  मुँडेर  पर। 
 पर वो भूलना भी कोई भूलना था ................ 
 इसीलिए सबने भुला ही दिया उन बातों को ,
 अब जो मैं भूलती हूँ ,तो सब कहते हैं -
 तुम्हें भूलने की  बीमारी हो गयी है............ " 

2 comments:

  1. kuchh bhulna bhi achha to kuchh yaad rakhna bhi achha ...bahut badhiya

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